सृष्टि का संसर्ग
सृष्टि का संसर्ग
खिल उठी कोई कुमुदिनी
प्रेम का स्पर्श पाकर
कर उठा गुँजार मन का
भ्रमर इस उपवन में आकर
कर उठी नर्तन जो सूर्य
रश्मियाँ जल गात पर
सारी सृष्टि है प्रफुल्लित
जल से नभ के साथ पर
उड़ चला कोई पखेरू
खोजने जीवन का राग
सुन कर कलरव भरता मन में
एक अज़ब सा बैराग
बह चली धारा निरन्तर,
गूंज रहा कल कल का नाद
ज्यों प्रकृति का हो रहा हो,
प्राणों से सीधा संवाद
वृक्ष झूमकर करें तरंगित,
भर देते मन में उल्लास,
मन्द पवन के निश्छल झोंके
भरते मन मे दृढ़ विश्वास
सद्य नर्तन करती सृष्टि
जीवन ताल की थाप पर
प्राण धरा पर होगी वृष्टि
मन के हर अनुताप पर
पुलकित,सुरभित, कुसुमित सृष्टि
देखो क्या समझाती है,
हर एक भोर जीवन पथ पर,
नया सवेरा लाती है।
देख के जीवन के कष्टों को
हे पथिक तुम नहीं डरो
होने दो खुद को उल्लसित,
होगी भोर तुम धीर धरो !
