सघन घन
सघन घन
है क्या ही घन ये सघन!
तू सिंधु पोषित,
रव अल्प शोषित,
विद्यु क्यों तेरे अन्तस्
में आक्रोशित,
क्या अपने पी को ही तू ढूँढे,
घूमे वन-वन!
नभ में आच्छादित,
करे तो आल्हादित,
नत अम्बर गर्वित,
क्यों ले के आभा तेरी झूमे,
आज तृण-तृण!
चहुँ दिशि में चँचल,
तू चलता प्रतिपल,
तेरी ही छाया हो कर
मैं आज श्यामल,
चलूँ सँग तेरे आज मैं ,
जलधार बन-बन!
क्या हुआ सम्पूर्ण नभ ही,
मेघ-आलय!
तेरे आगे क्यों लघु शाश्वत ,
हिमालय!
कर दे हुलसित आज मन का ,
ये शिवालय,
कर उठे नटराज मन मंदिर में नर्तन!
है क्या ही घन ये सघन!