"सरस "
"सरस "
सरस मधुर हो भावपूर्ण जो,
सुर- सरिता सी सजल विमल ।
मधुर कल्पना मय कविता- सी,
भ्रान्ति- हीन भी सुखद अचल ।।
जगत - प्राणी सम प्राण समाहित,
उच्छवास सम सतत सचल ।
अन्तर्हित गतिमान अनवरत,
निर्झर - सा झर - झर चञ्चल ।।
चिदानन्द मय चित्त प्रफुल्लित,
सदा सरस प्रिय और अमल ।
शुष्क नहीं हो झंझा वात से,
वही सर्व अस्तित्व सफल ।।
व्यर्थ हुआ वह सृजन सृष्टि जो,
दर्श किन्तु उत्कर्ष विरल ।
सरस नहीं जो भाव भूत भव,
उदासीन बद और विफल ।।
समरस सरस युक्त हो जीवन,
रचना, वाणी, गान सकल ।
वरना सब कुछ अर्थ -हीन है,
गंधहीन सूखा परिमल ।।