सर्दी के अपने मजे
सर्दी के अपने मजे
सर्दी के वो सर्द दिन आज भी याद आते
मूंजखटिया में कपड़े फैला आंच लगाते
पीतल के ग्लास में दादी गर्म चाय पीतीं
एक कटोरी में मुझको भी थोड़ी सी देतीं
ठंडी में भी बाबा जी गंगा जी रोज नहाते
मकरसंक्रान्ति में हमें भी डुबकी लगवाते
अम्मा कड़कती सर्दी में नहा,खाना बनातीं
खुद बिन स्वेटर,पर हमें पहनाना न भूलतीं
गरम,करारे पराठे अचार ,बुकनूं संग देतीं
दादी गोंद पाक,सोंठ-लड्डू, सिठोरा सेंकतीं
रविवार, धूप में गजक,मूंगफली खिलाती,
मां बाजरे की रोटी संग सरसो साग बनातीं।
कभी बाजरे का भात,तो मक्की रोटी होती,
चने की भाजी, लहसुन हींग बघार लगाती।
वो देशी बेसनी सेव कड़ी के लाडू याद आते,
आज भी वे सब गांव की यादों में ललचाते।
बाहर बैठ अलाव तापते शरीर गरम हो जाते,
पड़ोसी रामू काका, भूत कहानी खूब सुनाते।
डर के, हम अम्मा से लिपट पल में सो जाते,
सपनों में खोये गुड्डू भैया भूत-भूत चिल्लाते।
इलाहाबादी अमरूद सर्दी में हैं गांव बुलाते,
यूपी की सर्दी के मजे गुजरात में कहां पाते।
फल ,सब्जी देख ये मन तरो-ताजा हो जाते,
अपनत्व भाव परायों का ठंडी में गर्मी भरते।
