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Kusum Joshi

Abstract

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Kusum Joshi

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सोने का पिंजरा

सोने का पिंजरा

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एक तोता था,

एक पिंजरा था,

पिंजरा सोने का बना हुआ,

और तोता उसके अंदर था,


तोते को सबने यही कहा,

कि तुम तो किस्मत वाले हो,

दुनिया फिरती है मारी मारी,

तुम सोने में रहने वाले हो,


यह देख देख कर तोता भी,

दम्भ ख़ुशी से भर जाता था,

अपनी किस्मत पर आसक्त हुआ वो,

प्रभु की महिमा गाता था,


दिन महीनों में और वर्षों में ,

कई बीतते चले गए,

आस पास के लोग भी सब,

कितने ही अब बदल गए,


बदल रही थी दुनिया हर दिन,

मौसम कई बदलते थे,

लेकिन तोते के पिंजरे में,

हर दिन समान निकलते थे,


न वर्षा की फुहार वहां थी,

न बसंत की फुलवारी,

न तूफां के थपेड़े थे,

न ही कोई दुनियादारी ,


तोते ने खुद को देखा,

तो उसकी कोई पहचान न थी,

उसकी बोली भी दूजों की थी ,

खुद की कोई जुबान ना थी,


खाने को तो सबकुछ था,

सब सुख सुविधा आराम भी था,

पिंजरे में खो गया कहीं,

ढूँढा पर सम्मान ना था,


अपनी मर्ज़ी से पंखों को,

फ़ैलाने की आज़ादी ना थी,

खुली हवा में उड़ने की,

अम्बर छूने की आज़ादी ना थी,


तोता हर दिन पिंजड़े में बैठा,

ये ही सोचा करता था,

यह पिंजड़ा मेरी क़िस्मत था,

या दुर्भाग्य का मेरे दर्पण था,


जीवन में आजादी ही ,

सबसे अमूल्य है कुंदन है,

पिंजड़ा चाहे सोने का हो,

लेकिन वो भी बंधन है,


वो सब सुख सुविधा या खुशियाँ,

जो भी आगे बढ़ने से रोकेंगी,

वो चाहे कितनी सुन्दर हो,

पर पैरों में बंधन होगा,


ज़िन्दगी तोते के जैसी,

पिंजरे में बंध जाएगी,

केवल सुख की राह चुनी तो,

आज़ादी खो जाएगी।


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