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Neha Soni

Classics Inspirational

4  

Neha Soni

Classics Inspirational

सोचा वही जो हुआ ही नहीं

सोचा वही जो हुआ ही नहीं

3 mins
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हे सृष्टि के रचयिता जब दिया था जीवन तो,क्यों न बता दी मौत की तारीक?

डर था तुझको क्या? क्या सोच रहा था तू, कि मृत्यु दिन पता होने पर,

मैं हर एक दिन घुट- घुट कर जीता, दर्द का ये प्याला मन ही मन पीता,

क्या डर था तुझको कि, मैं बता देता ये राज सबको ?

जब बांधा ही हैं तूने अपने इस जगत के मायाजाल में,

तो लगा देता एक और पाबंदी मेरे इस ख्याल में,

होता क्या बस यही कि, 

नहीं बता पाता मैं, ये राज किसी अपने को

नहीं हटा पाता मैं इस सत्य जैसे सपने को।

मैं सह लेता अगर होती तेरी मर्जी,ये राज छिपाने की,

तू तो खुदा है, हर सीढ़ी बंद कर देता ये राज के निकट जाने की,

पर मैं क्यों चाहता ऐसा आचार ?

जब मैं ही मांग रहा था खुदा तेरे से,अपने मन का ये विचार,

क्या नहीं चाहता तू ? हो मेरे पापों का कुछ कम भार,

मृत्यु की तारीक पता होने से मैं, डर के कारण करता

ही रहता कहीं न कहीं छोटा - सा उपकार।

इस धरती पर थोड़ा ही सही पर होता कम अत्याचार,

अगर बांध देता तू मृत्यु दिवस ज्ञात होने का यह शाश्वत भार,

धरती पर आने से सीखता है, हर कोई पारिवारिक व्यवहार,

ये राज ज्ञात होने पर सुधर जाता हर एक व्यक्ति का द्वार।

तू ही बता ये खुदा, क्यों छोड़ दी तूने ये कमी इस धरती के हर बालों से ?

क्या नासमझी हो गई थी हम तुच्छ ग्वालों से ?

तू नाराज था क्या ? अपनी रचना के हम सब मानव से,

क्यों भरता जा रहा ये ब्रह्मांड ? पापों के गन्दे दानव से।

प्रलय दिखा देता तू, कर भू - स्खलन,

बाढ़,महामारी और अकस्मात घटना,

अगर नाराज नहीं तू, तो बंद कर मेरे खुदा ये आक्रोश अपना।

हम तो तेरे बनाये दास हैं, हममें जीने की व्याकुल आस है,

क्यों रखता है हम सबको तू ? जीने की इस बेकार आस में,

क्यों उजाला नहीं कर देता ? पापों से भरे इस जगत जंजाल में।

मानव को भर दिया तूने लाखों मायाजाल से,

सब उलझे हैं यहां, अपने -अपने पारिवारिक संसार से,

क्यों भूल गया ये संसार ? देखना अपने पापों का यह व्यापार,

कहाँ सो रहा, वो अवतार ?

जगा पायेगा जो अपने विवेक से, ये अधेंरा संसार।

पर मैं कैसे उठाऊं ? तेरी इस मानव-रचना पर सवाल,

मैं तो नित्य मात्र भी नहीं हूं, जो कर सकू तुझसे ये पुकार,

रह गई क्यों अधूरी यह बात ? खुदा सोचकर तू दे देता हम सबको ये सौगात।

मृत्यु दिवस जान ; मन में सबको होता दुःख,

पर नहीं रख पाता वो यह बात किसी के सम्मुख,

क्योंकि बांध देता खुदा तू ये राज सिर्फ उसी तक सीमित,

जिससे याद रहती उसे ये बात नियमित। 

मृत्यु तो शाश्वत सत्य है, जो कोई नहीं टाल सकता

पर अपने मन के मैल को तो वो पल भर जान सकता।

आता उसके मन में भी विचार, क्यों किए थे मैंने पापों के अत्याचार ?

जन्म से जान मृत्यु दिवस,कम ही करता बुरे काम ये संसार,

भय होता उसे पापों के कारण, खुदा तेरे घर आने में,

रोक देता पाप वह, इसी पृथ्वीलोक के घराने में।

जब मनुष्य समझता यह बात,तो जरूर करता वह सबको समझाने का प्रयास।

पर मैं कौन होती खुदा ? तुझसे ये प्रश्न उठाने की,

मैं तो चींटी मात्र हूं, क्योंकि खबर ही नहीं रहती किसी को,

इसके परलोक जाने की।

मैं उन्हीं सब के बीच की चींटी हूं, जो कोई देखकर भी दबा देता है,

मेरे उठने से पहले ही मुझे पूरी तरह गिरा देता है।

चींटी भी जीव है, उसमें भी जान है,

सिर्फ पैरों तले चलने से सब उसकी मौत से अनजान हैं।

माना चींटी नहीं मानव जितनी विशाल,

पर उसकी छोटी -छोटी कोशिशों की, पर्याप्त हैं मिसाल।

मेरे से भी खुदा प्रश्न उठाने की कोशिश हुई है,

मेरी हैसियत सिर्फ इतनी, जितनी दिये में जलती रूई है।

रूई का भी रुतबा कमाल का है, अपने को जलाकर कई घरों को रोशन करती है,

पापों का काला धुआं बनाकर खुद को संतुष्ट करती है।

माफ कर दें खुदा,अगर प्रश्न उठाकर कर दी हो मैंने गल्ती     

पर मैं कैसे भूलूं महसूस करना, मेरे अंतरमन की ज्वाला ये जलती !


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