संसार रथ की सारथी हूँ
संसार रथ की सारथी हूँ
मेरी अशेष खूबियों की रोशनी से लबालब मेरी शख़्सीयत से जलने वालों ने
सदियों पहले एक उपनाम दिया था अबला का मुझे वो लौटा रही हूँ..
अग्नि सा मेरा रुप और गुनगुनी भस्म से मेरे तेवर को झेल नहीं पाता समाज
तभी तो कमज़ोर कहकर संबोधित करता है कभी-कभी..
कभी शुभारंभ ही नहीं होती वो रस्म मुझे भीतर से पहचानने की,
पंचजन्य सी मेरी देह के इर्द-गिर्द नज़रें जमी रहती है लालायित होते..
मेरे नैन नक्श और त्वचा के कद्रदानों मैं पूरी किताब हूँ,
देह की भूगोल में ही भरमाते रहे अक्ल का इतिहास भी पढ़ा करो..
वैदिक संग्रहालयों से मेरे दिमाग के अतुलनीय आसमान तक पहुँच ही नहीं पाती
उन पितृसत्तात्मक वाली सोच की परिधि..
महज़ पारिजात सी सुगंधित सुकुमारी नहीं,
पाषाण से मेरे इरादों को छूकर देखो दस तनय के समान कढ़ा हुआ पाओगे..
तलहटी पर बिछा ही पाया मेरे वजूद को पर्वत की शिखा हूँ,
अनेकानेक हुनरों से लदी अनन्या हूँ ये क्यूँ नहीं सोचा कभी किसी ने..
सहनशीलता की मूर्ति सम धरा न समझो निर्बल नारी की परिभाषा नहीं,
सराबोर व्योम हूँ ख़ुमारी से भरा ये बात अपनी स्मृतियों में रखो..
हिम्मत, हौसला, धैर्य और जुनून मेरे हथियार है साँसें लेता है
मेरे भीतर इन सारे उफ़ानों का समुन्दर, मुझे मृत:प्राय न समझो..
न सीता न गांधारी न द्रौपदी सी सहने में महारथ हूँ,
झांसी की भूमि से लक्ष्मी नाम का उठा था कभी शौर्य का सैलाब उस आंधी का अर्थ हूँ..
महज़ मेखला सजी मानुनी न समझो नर्तन करती है जिम्मेदारियां मेरे कंधों पर,
चुटकी सिंदूर से विद्यमान संसार रथ की सारथी हूँ..