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Neeraj Kumar

Inspirational

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Neeraj Kumar

Inspirational

बरगद थक चुके हैं - एक नवगीत

बरगद थक चुके हैं - एक नवगीत

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बस करो पंचायतों के राग बरगद थक चुके हैं।


तर्क के मुख में कहाँ है,

सार्वभौमिक न्याय की भाषा,

तथ्य भी अपने सभी के व्यक्तिगत

तो मौन परिभाषा।


वीर वो थकते नहीं,

आश्वासनों के शब्द दे पर,

व्याकरण ही और उसके

भाष्य अंगद थक चुके हैं।


जल रही सदभावना की

बेल बरगद पी रहे विष,

शेष क्या आधार जिस पर

रात, दिन पलते निरामिष।


अब द्विअर्थी संकरित संवाद

ही सदभावना हैं,

शुद्ध अर्थों की समझ वाले

निरापद थक चुके हैं।


हो हमारा या तुम्हारा

धर्म छोड़ो घर बचा लो,

कुछ न पाओ यदि बहाना

भूख का सौहार्द पालो।


यदि नहीं चेतीं अभी भी

बिल्लियाँ तो ये न सोचो,

बंदरों की ही रची

चौपाल, संसद थक चुके हैं।


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