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संक्षिप्तता और सहजता

संक्षिप्तता और सहजता

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बात कुछ

कहनी है

तो अंदाज सहज

हम चुनते हैं।


भावना जो मस्तिष्क

में उभरती रहती है

उसे दिल से

हम कहते हैं !


शब्दों के जालों में

यूँ ही भटकना हमें

आता ही नहीं

लोगों को भी।


"रामायण " छोड़

"विनय पत्रिका"

भाता ही नहीं

हम कितने

प्रयासों से

शब्दों का संचय

करते हैं।


लोगों को कहाँ फुर्सत

ऐसे पढ़ते और समझते हैं ?

कभी-कभी

हमारी भाव -भंगिमा

इन शब्दों ही उलझकर

रह जाती है !


हम जो बात लोगों को

कहना चाहते हैं,

वह कोप भवन के किसी कोने में

कुंठित रह जाती है !


संक्षिप्तता, सहजता

की बयार से

लेखनी यूँ ही निखरती है,

सहज श्रृंगार करके

लेखनी यूँ ही सँवरती है !


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