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Rajeev Kumar Srivastava

Abstract

4.5  

Rajeev Kumar Srivastava

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समयचक्र

समयचक्र

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ये क्या दिन आ गए 

सोचा ना था कुछ ऐसा भी हो

ये क्या समय आ गयी 

सोचा ना था कभी ऐसा भी हो 

ये कैसी कश्मकश है 

चाहा ना था कभी ऐसा भी हो॥

सुबह होते ही वही चिंता

शाम ढलते ही वही क़यास

थोड़ी इधर उधर की बातें हों

बाक़ी सब बकवास

क्या यही है ज़िंदगी।

क्या इसे ही कहते है ज़िंदगी॥

मन तो है चंचल

जो चाहा सो माँगा

क्या पाया क्या खोया

ये तो बस है अब बात।

शायद यही है ज़िंदगी॥


अब क्या करना

क्या नहीं है करना

ये तो है सब मन की बात

करना है वही जो हो सही 

नहीं तो फिर हो जाएगी और बात 

कौन बताए कौन समझाए

ये तो है आत्मचिंतन की बात॥

जब जागो तभी सवेरा 

ये तो सुना है हज़ारो बार

पर जागने का समय और समझ 

ये नहीं किसी ने बताया अब तक

बात बात की सौ बात 

उन सभी में एक ही बात

फिर वही सारे पुराने बात॥

पछतावे में नहीं रखा कुछ

सीख और तजुर्बा ही है सब कुछ

यही समय चक्र है भाई

जो समझ हुआ वो जीत गया

जो नहीं समझा वो सीख गया॥


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