समय का खेल
समय का खेल
कल मैंने सोचा,
आज से बदलूंगा जीवन मैं अपना।
और सोचता हूँ कि,
कल से पूरा कर लूंगा ये सपना।
आज कल की यही पहेली,
उलझ गयी इस चक्कर में।
मैंने सोचा बदल जाएगी,
आदत ये तो पल भर में।
आदत लेकिन बदली ये ना,
मैंने कई प्रयास किए।
पहले मैं था समय टालता,
समय टालता आज मुझे।
मैं जीवन को खेल समझकर,
रहा खेलता ख़ुद से ही।
आज ज़िन्दगी खेलती मुझसे,
खेल बना दिया मुझको ही।
जब समय था पास मेरे,
अक्ल ना तब तो आई थी।
समय रुका ना चला गया,
अब अक्ल भी क्या कर पाएगी।
जीवन रेत बना फिसला,
मुट्ठी में ना मैं बांध सका।
क्या खोया क्या पाया मैंने,
कभी नहीं ये जान सका।
कल - कल कहते समय बीतकर,
अन्त समय आ पहुंचा है।
अब चाहता हूं जीवन जी लूँ,
मृत्यु ने न्योता लेकिन भेजा है।
जीवन की सार्थकता को ना,
समझ सका इस जीवन में।
जब जाना कि जीवन क्या है,
कर रहा मृत्यु आलिंगन मैं।
अबकी बार यदि धरती पर,
जन्म मुझे मिल पाएगा।
पुनः धरा पर रूप ये मेरा,
नए रूप में आएगा।
तब जीवन के हर एक पल को,
सार्थक करके जाऊंगा।
जब जाऊंगा इस दुनिया से,
फिर हाथ नहीं फैलाऊँगा।