समेट लो बिखरते रिश्तों को
समेट लो बिखरते रिश्तों को
आज रिश्ते यूं बिखर रहें हैं
रिश्तों के अर्थ बदल रहें हैं
हर कोई अपनों को भी कुचल रहा
प्रीत नफरत में है बदल रहा
ना जानें कैसा है परिवर्तन आया
हर रिश्तों को वीरान बनाया
एक दूसरे को कोई समझ ना पाता
हर कोई खुद में ही रम जाता
समय ने कैसा मंजर दिखाया है
अपना भी हो रहा पराया है
पहले प्यार की भाषा थी मौन
आज बोलों फिर भी सुनता कौन
रिश्तों में बढ़ रही है उलझन
कोई ना पढ़ता किसी का मन
मर्यादा खंडित हो रही
मानवता मुंह मोड़ रही
कर्तव्यों से सबनें किया किनारा
आगे निकलने की होड़ ने पछाड़ा
एक दूसरें से मुंह मोड़तें है
अपनों पर भी शक करतें हैं
रिश्तों को समझ पाना
आज सबके बस की बात नहीं
एक दूजें के साथ रहकर भी
रहतें हैं लोग क्यूं साथ नहीं
छोड़ दो यह द्वेष व नफरत
कर लो सबसें फिर मोहब्बत
मीठें दो बोल बोल कर
रख दों दिल खोल कर
सब मिलकर बोओ रिश्तों के कुछ बीज
प्यार अपनापन से इसको दो सींच
चार दिनों की यह जिंदगी
यूं ही बीत जानी है
प्यार से जो जीत लें
बस यही जिंदगानी है
शक की घास ना मन में आए
समेट लो बिखरें रिश्तों को कहीं देर ना हो जाए।