सियासतों के बदलने पर...
सियासतों के बदलने पर...
ज़माने से रही दोस्ती जिनसे,
साथी वो अनजाने लगते हैं
पलकों में जिनका मुकाम था,
अब वो ख़्वाब बेगाने लगते हैं…
हाथों की हिना का रंग,
फीका न पड़ने पाए कभी
पिसते -पिसते जज़्बात सब
दिल को जलाने लगते हैं…
एक आँगन में रहे जो साथ
भाई- भाई की तरहाँ हमेशा
सियासतों के बदलने पर,
मालिक से मकाँ छुड़ाने लगते हैं…
तेरी दुनिया में रहे खुदा
अजनबी बन के उम्रभर
वरना लोग तो अपनों से
दामन छिटकाने लगते हैं…
मन तेरे लालच की सीमा
‘अर्पिता’ ना समझी आज तलक
अपनी रोशनी की खातिर
गैर का घर जलाने लगते हैं…
-✍️देवश्री पारीक 'अर्पिता,