STORYMIRROR

Shubham rawat

Abstract

4.5  

Shubham rawat

Abstract

एक टुकड़ा धूप

एक टुकड़ा धूप

1 min
264


तु कुछ पल ठहर मेरे संग

जैसे, धूप का एक टुकड़ा


भला कैसे, धूप का एक टुकड़ा

जैसे, बंद कमरे में रोशनदान से आती धूप

ठहरना मुश्किल हैं


मुश्किलों में ठहरना और भी मुश्किल

मैं चलते चलते रुक सा जाता हूँ 

किसी सोच से उलझ जाता हूँ


उन उलझनों काे सुलझाने में

खुद से रुठ जाता हूँ

बेवक्त सोता रहता हूँ

बिना दर्द के रोता हूँ


खोया खोया सा रहता हूँ

उस बंद कमरे में

एक टुकड़े धूप की तरह।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract