मैं और क़ल़म
मैं और क़ल़म
मैं और मेरी क़ल़म जब भी एक दूजे के साथ-साथ होते हैं,
काग़ज़ पर कुछ राग नया हम दोनों, मिलकर गुनगुनाते हैं।
किसी उलझन की उथल-पुथल या खुशियों की हो झंकार,
क़ल़म उसे काग़ज़ पे उतार मन के भावों का करती श्रृंगार।
जीवन के इस सफ़र में, सच्चे हमसफ़र हैं, मैं और कलम,
नवस्फूर्ति का संचार करती मन में, जब भी थके मेरे क़दम।
आत्मविश्वास है क़लम मेरा, साथ चलती बनकर पहचान,
मैं मुस्कुराऊंँ तो मुस्कुराती, नहीं मेरे एहसासों से अनजान।
स्वार्थी हो जाए सारी दुनिया पर क़लम साथ नहीं छोड़ती,
कद्र करती जज़्बातों का, कभी मीत कभी प्रीत बन जाती।
फूल में बसी खुशबू की तरह, मेरी क़ल़म मुझमें समाई है,
जीवन के हर पहलू में सदैव बनकर चलती मेरी परछाई है।
मन के गहरे सागर में, उठती जब असंख्य शब्दों की तरंग,
शब्दों की माला पिरो कर उसे साकार रूप देती है क़लम।