ए घर....
ए घर....
मुझे पहचानते हो ?
कभी रखी थी नींव मैंने
तुम्हारी बड़े प्यार से।
वक़्त वो अजब सा था
हौसला ग़ज़ब सा था।
जेब थोड़ी तंग थी
पर मन में उमंग थी।
कुछ उधार था लिया
कुछ जुगाड़ खुद किया।
कुछ शौक़ थे अज़ीज़ से
जो तुझपे थे क़ुर्बान किये।
कुछ सोने के टुकड़े थे
जो हमने गिरवीं रख दिये।
एक कोना रखा हमने
सुबह की धूप के लिए।
एक छत का कंगूरा
चाँद के नाम कर दिया।
ख़ुशबुओं के साये में
सँवारने को रिश्ता,
एक हरा कोना
मोगरे के नाम कर दिया।
पर......
वक़्त भी अजीब है।
घर को सजाते,सँवारते,निखारते
न जाने कितनी रातों को
हमने ज़ाया कर दिया।
कोना वो धूप का
तरसता ही रह गया,
वक़्त न निकाल पाए
संग बैठने को हम।
चाँद भी कंगूरे पे
तन्हा नज़र आता है,
के वक़्त को समेटने में
पखवारा निकल जाता है।
मोगरे की ख़ुशबुओं का
मौसम गुज़र जाता है
और......
घर ये अचानक
मकाँ सा नज़र आता है।