सीमाएँ...बहुत ही दूर
सीमाएँ...बहुत ही दूर
पर्वत को तू हिला सकता है,
भूतों को तू डरा सकता है,
हर दानव को हरा सकता है,
जल की बूँदें जला सकता है।
तू तो है अनजान; पता न
"जीवन कैसे है जीना",
तीन ही सीढ़ी चढ़ा और बोला-
खत्म हो गयी सीमा।
"बिन पग के न उड़ूँ" सोचते
वायुयान फिर कैसे बनते !
"बिन पग के न चलूँ" सोचते
देख ! पंगु यह कैसे चलते।
तू तो है अनजान, पता न
"जीवन कैसे है जीना";
सीमित स्वयं तू हो गया;
न खत्म हो गयी सीमा।
अंगूर तू लेने चला
जो दूरी पर तो
बोले 'खट्टे';
आलस न कर;
हे मानव !
तुम हर कुछ संभव कर सकते।
