सीख रही हूँ माँ से मै...
सीख रही हूँ माँ से मै...


सीख रही हूँ माँ से मैं
कि कैसे आटे की लोयी से कम हो सकती है
जिंदगी की कड़वाहट भी
माँ भी तो यही करती है ना
सब्जी में नमक तेज होने पर
कैसे रोका जा सकता है
हल्दी से ही
जिंदगी के अनमोल तरल द्रव्य को बहने से
हाथ में चाकू लगने पर माँ अभ्यसत् जो है
मसालदानी की ओर बढ़ने मे
सीख रही हूँ माँ से संतुलन साधना
वो नाप – तोल कहाँ कर पाती है हमारी तरह
बल्कि चुटकी भर मसालों से ही
आता जो है संतुलन साधना उसे
नहीं लगता अब मुझे किताबी गणित प्रासंगिक
बल्कि सीख रही हूँ माँ से जिंदगी का गणित
आता जो है माँ को बहुत अच्छे से,
कब कहाँ घटाना है खुद को
और कब जुड़ना है सामने वाले से
देना है किस तरह से भाग जिंदगी की मुश्किलों को
और किन रिश्तों को करना है दोहरा-तिहरा।