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प्रियंका शर्मा

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प्रियंका शर्मा

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कुछ पुरानी उधड़न

कुछ पुरानी उधड़न

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बना रही थी

उधड़े स्वेटर की ऊन

का एक गोला

और सोचती जा रही थी मैं

कि होती है किसी हद तक ऐसी ही

प्रकृति एक नारी की भी


बैठती है जब भी नितान्त

और कुछ मुक्ति पलों में

देती है वो भी अपने दुखों को

एक नया आकार

ठीक इसी वलय की भाँति

बस इसी सोच में

हो गया है एक गोला पूरा


रख इसे एक तरफ

बढ़ चले हैं हाथ अब

दूसरा गोला बनाने

बच जो रही है अभी

कुछ पुरानी उधड़न



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