सहूलियत अच्छी नहीं लगती
सहूलियत अच्छी नहीं लगती
मुझे अपनी सहूलियत अच्छी नहीं लगती
जब....देखता हूँ ..
लेबर चौक पे फावड़ा बेलचा लिए
मजदूरी का इंतज़ार करते मियां बीवी को
अक्सर जिनका चूल्हा
बारिश होने पे ठंडा पड़ जाता है।
नहीं अच्छी मुझे अपनी रफ़्तार से भरी ज़िन्दगी
जब किसी के पांव में कांटा गड़ जाता है
नहीं अच्छे लगते मुझे अपनी कार के रफ़्तार लिए टर्न
जब कोई सायकल वाला टकराते हुए बच जाता है।
अखरते हैं मुझे अपने कीमती लिबास
रेड सिग्नल पे जब कोई मासूम
पैसे के लिए मेरी तरफ हाथ बढ़ाता है
चुभती हैं मुझे अपने आशियाने की
फ़िज़ूल में जलती हुई सैंकड़ों लाइट्स
जब ज़रा सी हवा चलते ही
किसी का चिराग बुझ जाता है।
ज़ुबान के ज़ायके फ़ीके लगने लगते हैं
जो गरीब की थाली में कंकड़ आ जाता है
अपनी ऊँची तालीम पे होता हूँ बहुत शर्मिंदा
जब मजदूरी करते बचपन की आँख में आँसू आता है।
अपने चेहरे पर सियाही को
और गाढ़ा पाता हूँ जब
कोई बच्चा जब ऑफिस टेबल
कुर्सी को कपड़े से चमकाता है
मेरा ओहदा मेरा रुतबा
जैसे मिटटी में मिल जाता है
जब माँ बाप सरीखा बुज़ुर्ग मेरे सामने अपना
काम करवाने हाथ जोड़ खड़ा हो जाता है।
हाँ, बहुत अखरती है
मुझे मेरी तमाम सहूलियत
जब लाख मेहनत के बाद भी
कोई बेसहुलियत रह जाता है।
