श्रृंगार
श्रृंगार
श्रृंगार करूं
सोलह श्रृंगार करूं
नयनों में भर के
अपने रूप के यौवन को
अपने सजना से
मैं प्यार करूं
तन का बस नहीं
मन का भी मैं
श्रृंगार करूं
आईने सी ही
उज्जवल काया का
मैं हृदय से
वरण करूं
चूड़ी जो खनकाऊं
बरसे अमृत के रस
पायल जो छनकाऊं
धरती भरे हिलोर
पर्वत कहें
ऐ सुंदरी
अब थम जाओ बस
पहाड़ों की श्रृंखलाओं की
सबसे ऊंची पहाड़ की
चोटी सा
समुन्दर की गहराई सा
प्रेम अपना
बिन श्रृंगार भी दिखूं जो
मैं अपने पिया को
वह भर ले मुझे
अपनी बलिष्ठ भुजाओं में और
कहे
इस धरती से आकाश तक
नहीं कोई दूजा
मेरे जैसा उनका
अपना
एक श्रृंगार रस सा ही
सुंदर कोई सपना।