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Dhan Pati Singh Kushwaha

Abstract

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Dhan Pati Singh Kushwaha

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श्रमिक का दर्द

श्रमिक का दर्द

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प्रकृति का कण-कण हर ही क्षण, 

 सदैव ही निभाता है अपना धर्म,

फल निश्चित ही मिलता है सबको,

है आधार जिसका निज कर्म।


सकल जड़ तत्त्व प्राकृतिक भाग का,

है सतत् ही अनुदिश प्रकृति के संग,

निज चेतना से असंतुलित करके चेतन,

अक्सर कर देता है नियम को भंग।


आश्रित हैं सब एक-दूसरे पर सदैव ही

करते पूरे कर्त्तव्य तो मिलते हैं अधिकार,

मन और तन के श्रम को करने से,

सुव्यवस्थित है सारा ही ये संसार।


परिश्रम करके ही सब प्राणी तो,

निभाते हैं खुद अपना ही धर्म,

असंतुलन -अव्यवस्था होती है तब,

जब कुछ श्रम से करते शर्म।


परजीवी है ये सब समाज के,

जो परश्रम पर जीते हैं,

निर्बलों का शोषण करते हैं ये,

लहू उनका ही पीते हैं।


दुख भोगा आदिकाल से, 

श्रमिक ने बहाया है स्वेद ही सतत्,

फल श्रमिक के ही श्रम का लूटते रहे, 

सदा ही चतुर पूंजीपति अनवरत।


उत्कृष्ट कृति हैं हम ईश की,

प्रबंध कर ये सब अव्यवस्था हटाएंगे,

श्रमिक को मिले श्रम का सुख, 

समाज में ऐसी व्यवस्था बनाएंगे।


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