श्रीमद्भागवत -९४ भरत जी का ब्राह्मण कुल में जन्म
श्रीमद्भागवत -९४ भरत जी का ब्राह्मण कुल में जन्म
एक बार एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे
और उनकी दो स्त्रीयां थी
बड़ी स्त्री के नौ पुत्र थे
छोटी स्त्री के एक पुत्र, एक पुत्री थी।
पुत्र पुत्री का एक साथ जन्म हुआ
इन दोनों में से जो पुरुष था
वही राजर्षि शिरोमणि
भरत जी का दूसरा जन्म था।
मृग शरीर का त्याग करके वो
अंतिम जन्म में ब्राह्मण हुए थे
जन्म परम्परा अपनी स्मरण थी
इस जन्म में भी उन्हें।
इस आशंका में कि कहीं
कोई विघ्न उपस्थित न हो जाये
अपने स्वजनों के भी वो
संग रहने से डरते थे।
भगवान के चरणकमलों को ही
ह्रदय में सदा धारण किये रहते
दूसरों की दृष्टि में वो
पागल, मूर्ख, बहरे से दिखते।
पिता का उनमें वैसा ही मोह था
उपनयन संस्कार किया उसका उन्होंने
और उन्होंने उसको शिक्षा दी
शौच, आचमन आदि कर्मों में।
किन्तु भरत पिता के सामने ही
उपदेश विरुद्ध थे आचरण करते
जो मंत्र पढ़ने को देते
समय पर वो उसे याद न करते।
ऐसा होने पर भी पिता को
पुत्र पर अपने बहुत अनुराग था
प्रवृति न होने पर भी उन्होंने
कुछ नियम उन्हें सिखा ही दिया।
किन्तु पुत्र को सुशिक्षित देखें
पूरा न हुआ मनोरथ ये
क्योंकि उनका अंत कर दिया
आक्रमण कर काल भगवान ने।
उनकी छोटी भार्या ने पति संग
सती होने का निश्चय था किया
अपने पुत्र और पुत्री को
अपनी सौत को था सौंप दिया।
भरत जी के जो नौ भाई थे
कर्मकांड को ही श्रेष्ठ मानते
ब्रह्मज्ञान रूप पराविद्या से
वो सर्वथा अनभिज्ञ थे।
इसीलिए भरत के प्रभाव का
ज्ञान नहीं बिलकुल था उनको
ध्यान न दें भारत जी पर वो
नीरा मूर्ख समझते उनको।
परलोक सिधारने पर पिता के
पढ़ाने का उन्हें आग्रह छोड़ दिया
भरत जी को तो पहले से ही कोई
मान अपमान का विचार नहीं था।
जब साधारण लोग उन्हें
पागल, मूर्ख कहकर पुकारते
तब भरत जी भी उन्हें सुन
उस अनुसार ही आचरण करते।
कोई भी उन्हें काम था कहता
उसकी इच्छा से कर देते वो
जो मिल जाये वो खा लेते
स्वाद कभी भी देखें न वो।
ज्ञानानंद स्वरूप आत्मज्ञान जो
प्राप्त कर लिया था उन्होंने
देहाभिमान नहीं था उनको
फ़र्क़ न कोई सुख, दुःख आदि से।
सर्दी, गर्मी, वर्षा, आंधी में
वो नंगे पड़े रहते थे
पृथ्वी पर ही पड़े रहें वो
स्नान भी कभी न करते थे।
धूल से ढकी मणि सामान ही
छिप गया था ब्रह्मतेज भी
मैला कपड़ा लपेटे कमर में
मैला हुआ उनका शरीर भी।
अज्ञानी कहें ये कोई अधम ब्राह्मण
तिरस्कार करें उनका वो
किन्तु भरत विचार न करें
धरती पर स्वछन्द विचरें वो।
मजदूरों की भांति काम करते थे
भाई उन्हें पसंद न करते
खाने को भी उन्हें अच्छा न दें
पर भरत उसे अमृत समझते।
उसी समय एक डाकू था
कामना करे वो पुत्र की
संकल्प किया कि भद्रकाली को
बलि देगा वो एक मनुष्य की।
जो पुरुष पशु बलि देने को
पकड़ कर मंगवाया था उसने
देववश वो भाग गया था
निकलकर उसके फंदे से।
सेवक चारों और थे दौड़े
उसे ढूंढ़ने के लिए उसके
किन्तु उसका पता न चला
भाग गया था वो अँधेरे में।
उसी समय उन सब की दृष्टि
ब्राह्मणकुमार पर अकस्मात् पड़ी
जो उस समय कर रहे थे
अपने खेतों की रखवाली।
उन्होंने देखा कि ये पुरुष तो
बड़े ही अच्छे लक्षणों वाला
स्वामी का काम सिद्ध हो इससे
इसलिए उन्होंने उसे बाँध लिया।
चंडिका के मंदिर में ले गए
विधिपूर्वक अभिषेक किया उसका
स्नान करा नए वस्त्र दिए
भोजन कराया, तिलक किया उसका।
बलिदान की विधि अनुसार ही
गान, स्तुति वो सब कर रहे
नीचे सर कर सामने बैठा दिया
पुरुष पशु को, भद्रकाली के।
फिर उनमें से एक चोर ने
देवी को रुधिर से तृप्त करने को
एक तीक्षण खड्ग उठाया
मारने के लिए पुरुष पशु को।
ये देख कि ब्रह्म ऋषि कुमार की
बलि देना चाहें डाकू वो
ये भयंकर कुकर्म देखकर
भद्रकाली प्रकट हुईं कुपित हो।
आँखें उनकी दोनों लाल थीं
चेहरा भयंकर जान पड़ता था
अट्टाहास कर, खडग लेकर फिर
सर उड़ा दिया उन पापियों का।
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
देहाभिमान छूट गया जिनका
समस्त प्राणियों के सुहृदय जो
भगवान बुरा न होने दें उनका।
भद्रकाली आ/दि भिन्न भिन्न
रूप धारण करते हैं वो
उनके भक्त पर कष्ट आए जब
उनकी रक्षा तब करते हैं वो।
