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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -८१ ;पुरंजनो पाख्यान का आरम्भ

श्रीमद्भागवत -८१ ;पुरंजनो पाख्यान का आरम्भ

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मैत्रेय जी कहें कि इस प्रकार से 

रूद्र ने उपदेश दिया प्रचेताओं को 

प्रचेताओं ने उनकी पूजा की 

शंकर चले गए तब अंतर्ध्यान हो।


प्रचेता जल में खड़े होकर फिर 

स्तोत्र का जाप करने लगे 

एक हजार वर्ष तक ऐसे ही 

वो सब तपस्या करते रहे।


इन दिनों राजा प्राचीनबर्हि का 

रमा था चित कर्मकाण्ड में 

नारद जी वहां पर आये 

राजा को तब वो उपदेश दें।


कहें राजन, इन कर्मों द्वारा 

क्या कल्याण करना चाहते हो 

कर्मों से दुःख का न नाश हो 

परमानन्द मिले न तुझको।


परमानन्द की प्राप्ति कल्याण है 

यह सुन राजा कहें नारद से 

बुद्धि कर्मों में फँसी है मेरी 

कल्याण का साधन बताईये।


विभक्त ज्ञान का उपदेश दीजिये 

कर्म बंधन से छुटूं जिससे 

नारद जी कहें, हे राजन अब 

मेरी बात पर ध्यान दीजिये।


यज्ञों में तुमने निर्दयता से 

बलि दी हजारों पशुओं की 

आकाश में बदला लेने के लिए 

देख रहे वो बाट तुम्हारी।


मरकर जब परलोक जाओगे 

अत्यन्त क्रोध में भरकर वो तुम्हे 

अपने सींगों से छेदेंगे 

उसी तरह कष्ट देंगें तुम्हे।


इस विषय में तुमको अब मैं 

एक प्राचीन कथा सुनाऊँ 

राजा पुरंजन का ये चरित्र 

मैं विस्तार से तुम्हे बताऊँ।


पूर्वकाल में पुरंजन नाम का 

बड़ा महारथी एक राजा था 

उसकी चेष्टा कोई जान न पाए 

अविज्ञान एक उसका मित्र था।


रहने योग्य स्थान की खोज में 

सारी पृथ्वी पर घूमा वो 

कुछ उदास सा हो गया था 

उचित स्थान कोई मिलमिला न जब तो।


तरह तरह के भोगों की लालसा 

उनको भोगने के लिए उसने 

जितने नगर भी उसने देखे 

कोई भी उसे जंचा न ठीक से।


एक दिन उसने हिमालय शिखर पर 

भारतखण्ड में एक नगर था देखा 

नौ द्वार थे उस नगर के 

सब सुलक्षणों से संपन्न था।


दिव्य वृक्ष बाहर नगर के 

और एक सुंदर बाग़ था 

बीच में एक भव्य सरोवर 

वन सारा वो बड़ा मोहक था।


उस अद्भुत वन में घुमते 

एक सुंदर स्त्री को देखा आते 

अकस्मात उधर आई वो 

साथ में दस सेवक थे उसके।


पांच फन वाला एक सर्प भी 

उस नगर का द्वारपाल था 

उस नगर की सभी और से 

वही सर्प रक्षा करता था।


स्त्री वो सुंदर भोली भाली 

खोज में थी एक श्रेष्ठ पुरुष के 

देवी जैसी वो ढूंढ रही कोई 

कर सके विवाह वो जिससे।


पुरंजन ने मुस्कुराकर पूछा 

बताओ देवी, तुम कौन हो 

साथ में दस सेवक कौन हैं 

और तुम किसकी कन्या हो।


तुम्हारे साथ जो स्त्रियां चल रहीं 

सर्प है जो, तुम्हारे साथ में 

क्या किसी देवलोक से आयी 

लग रही देवी के जैसे।


यदि तुम कोई मानवी हो 

तो मेरे साथ रहो इस पुरी में 

मैं हूँ बड़ा वीर, पराक्रमी 

मुझपर कृपा तुम्हे करनी चाहिए।


नारद जी कहें, हे वीरवर 

आधीर हो राजा पुरंजन ने 

इस प्रकार जब याचना की तो 

अनुमोदन किया उसका उस स्त्री ने।


राजा पर वो भी मोहित थी 

कहने लगी, जो पुरुष हैं साथ में 

वो सब मेरे सखा हैं 

और सहेलियां सब स्त्रीयां ये।


और सर्प जो साथ है मेरे 

ये है मेरी रक्षा के लिए 

जब रात को मैं सो जाती 

ये जगकर मेरी रक्षा करे।


मुझको उत्पन्न करने वाले का 

ठीक ठीक पता नहीं मुझको 

इस पूरी के बारे में भी पता नहीं 

किसने है बनाया इसको।


आप जो हैं यहाँ पधारे 

सौभाग्य की बात है मेरे लिए ये 

विषय भोगों की इच्छा जो आपकी 

तत्पर में उनकी पूर्ती के लिए।


नौ द्वार की इस नगरी में 

मेरे प्रस्तुत किये हुए भोगों को 

भोगते हुए तुम सैंकड़ों वर्ष तक 

इस नगरी में निवास करो।


नारद जी कहें, उन दोनों ने 

एक दुसरे का समर्थन कर 

उस पूरी में रहकर तब फिर 

आनंद भोगा था सौ वर्ष तक।


नगरी के जो नौ द्वार थे 

सात ऊपर थे, दो नीचे थे 

इन द्वारों से राजाओं से मिलने 

राजा जाता विभिन्न - विभिन्न राज्यों में।


उसका चित फंसा हुआ कर्मों में 

रमणी के द्वारा ठगा गया 

काम परवश होने के कारण 

भोगों में वो था रम गया।


उसकी रानी जो भी करती थी 

वह वह वो भी करने लगा था 

मद्यपान जब रानी करती 

वह भी तब मदिरा पीता था।


भोजन करती वो, वह भी भोजन करे 

उसके सोने पर सोता था 

हँसे वो तो, वह भी हंसने लगे 

उसके रोने पर वो रोता था।


जब उसकी प्रिय शोकाकुल होती 

वो था तब व्याकुल हो जाता 

जब वो प्रसन्न होती तो 

वो भी तब प्रसन्न हो जाता।


वह मूर्ख विवश होकर ही 

इच्छा उसकी न होने पर भी 

अनुसरण करने लगा था ऐसे 

जैसे वह खेल का बन्दर कोई।



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