श्रीमद्भागवत -६३; दक्ष यज्ञ की पूर्ती
श्रीमद्भागवत -६३; दक्ष यज्ञ की पूर्ती


विदुर जी से बोले मैत्रेय जी
जब प्रार्थना की थी ब्रह्मा ने
महादेव प्रसन्न हो गए
शिवशंकर ने तब कहा उन्हें।
भगवान की माया से मोहित हो
दक्ष जैसे नासमझों का
अपराध याद नहीं मैं करता
बस थोड़ा सा दण्ड दिया था।
दक्ष का सिर तो जल गया है
लगाइये बकरे का सिर उन्हें
अपना भाग भगदेवता देखें
मित्रदेवता के नेत्रों से।
पूषा पिसा हुआ अन्न खाते
यजमान के दांतों से करें भक्षण
जिनके अंग प्रत्यंग टूटे हैं
स्वस्थ हो जाएं सभी देवता गण।
अध्वर्यु और याज्ञिकों में से
जिनकी टूट गयी भुजाएं
वो सब काम कर सकते हैं
अश्वनीकुमार की भुजाओं से।
पूषा के हाथों से काम करें वो
जिनके हाथ हैं नष्ट हो गए
भृगु जी जिनकी दाढ़ी मूंछ गयी
बकरे की दाढ़ी मूंछ हो जाये।
भगवान शंकर के वचन को सुनकर
सभी लोग प्रसन्न हो गए
फिर सभी लोग महादेव से
यज्ञ में जाने की प्रार्थना करें।
ब्रह्मा शंकर को साथ लेकर सब
यज्ञशाला में पहुँच गए थे
जैसा शंकर ने कहा था
वैसा कार्य करने लगे थे।
यज्ञ पशु का सिर जोड़ दिया
तब उन्होंने दक्ष के सिर में
उठ गए तत्काल दक्ष तब
रूद्र देव की दृष्टि पड़ते।
अपने सामने शिव को देखकर
स्वच्छ हो गया ह्रदय था उनका
स्तुति उनकी वो करना चाहें
जब दर्शन हुआ महादेव का।
मरी हुई पुत्री सती का
हो आया स्मरण तब उन्हें
स्नेह वश मन भर आया
आंसू भर आये नेत्रों में।
मुख से शब्द नहीं निकल सके पर
फिर भी उन्होंने जैसे तैसे
प्रभु को मन में स्मरण किया
स्तुति करें वो शिव की ऐसे।
दक्ष कहें, किया अपराध है मैंने
बदले में जो मुझे दंड दिया है
उसके द्वारा शिक्षा दी मुझे
बड़ा ही अनुग्रह किया है।
ब्रह्मा होकर आपने ही तो
उत्पन्न किया ब्राह्मणों को पहले
आप ही उनका पालन करते
रक्षा करते उनकी विपत्तिओं से।
तत्व को आपके जानता ना था
अपमान किया भरी सभा में
आप ने कोई विचार न किया
कृपा की, करुणा भरी दृष्टि से।
इस प्रकार से क्षमा मांगकर
और कहने पर ब्रह्मा जी के
यज्ञ कार्य आरम्भ कर दिया
ऋत्विज अदि की सहायता से।
विशुद्ध चित से हरि का ध्यान किया
सहसा भगवान वहां प्रकट हो गए
भगवान पधारे ये देखकर
सभी ने प्रणाम किया उन्हें।
इंद्र, ब्रह्मा, महादेव जी
समस्त देवता, गन्धर्व, ऋषिगण
सबके सब खड़े हो गए
और उनकी स्तुति करें सब।
वीरभद्र द्वारा ध्वंस यज्ञ को
दक्ष ने आरम्भ किया था
सम्बोधन कर दक्ष को फिर
भगवान ने उसको ये कहा था।
अपनी माया से ही मैं जगत की
रचना, पालन, संहार करता हूँ
कर्म अनुसार मैं ही ब्रह्मा
विष्णु, शंकर रूप धरता हूँ।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर
तीनों एक ही ईश्वर हैं
अत : जो इनमें भेद ना करता
वही शांति प्राप्त करता है।
इस प्रकार आज्ञा देने पर
दक्ष ने उन हरी का पूजन किया
अन्य देवताओं का अर्चन कर
शिव का भाग शिव को दे दिया।
यज्ञ की तब समापति हो गयी
आशीर्वाद दिया देवताओं ने
कहा दक्ष ' धर्म में बुद्धि हो '
फिर वो सब स्वर्ग को चले गए।
मैत्रेय जी कहें, कि सती जी ने जो
अपना शरीर त्याग दिया था
जन्म हिमालय - मैना के यहाँ लिया
शिव को फिर से प्राप्त किया था।