श्रीमद्भागवत -४६ ;कर्दम और देवहूति का विहार
श्रीमद्भागवत -४६ ;कर्दम और देवहूति का विहार


माता पिता जब चले गए तो
देवहूति सेवा करें कर्दम की
बहुत दिनों तक व्रतादि से
तन से थीं बहुत दुबली हुईं।
कर्दम जी ने तब उनसे कहा
सेवा से मैं संतुष्ट हो गया
जो विभूतियां मिलीं मुझे योग से
अधिकार तुम्हारा उनपर हो गया।
दिव्य दृष्टि देता हूँ तुमको
उसके द्वारा उन सब को देखो
देवहूति का मुख खिल गया
जाना जब पति की विद्याओं को।
कहने लगी, हे मेरे स्वामी
विवाह के समय जो प्रतिज्ञा की थी
गर्भधारण तक गृहस्थ रहूंगा
अपनी वो बात करो अब पूरी।
उसी समय कर्दम मुनि ने
योग से अपने विमान रचा था
अत्यन्त सुंदर, भव्य बहुत वो
इच्छा से कहीं भी जा सकता था।
कर्दम जी ने कहा देवहूति से
बिंदुसागर में स्नान करो तुम
तीर्थ ये सब कुछ देने वाला
विमान के फिर ऊपर चढ़ो तुम।
देवहूति सरोवर में प्रवेश हुईं
भीतर देखें एक महल है सुंदर
देवहूति की सेवा करने
हजारों दसियां खड़ी वहां पर।
देवहूति को स्नान कराया
उसको दिए उन्होंने फिर वस्त्र
स्नान किया था जब सरोवर में
शरीर उनका हो गया था निर्मल।
देवहूति स्मरण करें पति का
अपने को फिर वहां था पाया
जहाँ विराजमान कर्दम जी
यह देख उनको विस्मय हुआ।
सोचें पति के योग का प्रभाव ये
देखा उनको भी कर्दम जी ने
सुंदर वो थीं बहुत लग रहीं
चढ़ाया उनको उस विमान में।
मेरु पर्वत की चोटिओं पर
विमान में उन्होंने विहार किया था
सभी लोकों में विचरे वो दोनों
फिर आश्रम को प्रस्थान किया था।
अपने को नौं रूपों में विभक्त कर
देवहूति से विहार करें वो
एक साथ नौं कन्या उत्पन्न हुईं
सबकी सब सर्वांग सुंदरीं वो।
देवहूति ने तब था देखा
पति वन को हैं जाना चाहते
जैसे प्रतिज्ञा की थी उन्होंने
तब मधुर वाणी में उनसे कहा ये।
प्रतिज्ञा तो निभा दी आपने
पर मेरी विनती सुनिए अब
कौन खोजेगा योग्य वर इनका
कन्या विवाह के योग्य हों जब।
आप जब वन में चले जायेंगे
मेरे जन्म मरण के शोक को
दूर करने के लिए भी
होना चाहिए यहाँ कोई तो।