श्रीमद्भागवत -४१; हिरण्यक्षशिपु और हिरण्यक्ष का जन्म और हिरण्याक्ष की दिग्विजय
श्रीमद्भागवत -४१; हिरण्यक्षशिपु और हिरण्यक्ष का जन्म और हिरण्याक्ष की दिग्विजय
ब्रह्मा जी ने जब अंधकार का
कारण बताया सब देवताओं को
शंका निवृत हो गयी उन सब की
लौट गए सब स्वर्ग लोक को ।
सौ वर्ष के बाद दित्ति के
पुत्र दो जुड़वां हुए थे
उनके जन्म लेते समय ही
पृथ्वी, स्वर्ग में अपशकुन हुए थे ।
लोग बहुत भयभीत हो गए
जगह जगह बिजलियाँ गिरतीं
आकाश में अंधेरा हो गया
उल्कपात, आँधीयाँ चलतीं ।
समुंदर में ऊँची तरंगें
सूर्य, चंद्रमा ग्रसे जाने लगे
लगता प्रलय है आने वाला
सभी जीव यही समझ रहे ।
शीघ्र ही दोनों शिशु वो
पर्वत के समान हो गए
पूर्व पराक्रम भी प्रकट हो गया
कश्यप ने दोनों के नाम रख दिए ।
जो गर्भ में पहले स्थापित हुआ
उसका हिरण्याक्षशिपु नाम था रखा
उदर से जो पहले निकला था
हिरण्याक्ष नाम उसका रखा था ।
हिरण्याक्षिपु ने ब्रह्मा जी के वर से
और अपनी भुजाओं के बल से
तीनों लोकों को जीता उसने
मुक्त हुआ मृत्यु के भय से ।
बहुत चाहता हिरण्याक्ष को वो
हिरण्याक्ष भी उसका कहा था माने
गदा लिए एक दिन जा पहुँचा
हिरण्याक्ष फिर स्वर्ग लोक में ।
शरीरबल, मनोबल, वर के कारण
निरंकुश और निर्भय हो रहा
उसको देखकर डर के मारे
देवता छिप गए यहाँ वहाँ ।
भयानक गर्जना की थी उसने
फिर समुंदर में जा पहुँचा वो
वरुण और सैनिक सब उसके
भाग गए, डर लगे था उनको ।
कई वर्ष समुंदर में घूमा
गदा को तरंगों पर आज़माए
वरुण जी की राजधानी
विभावरीपुरी में फिर वो आए ।
वरुण जी को देखा, हंसकर कहे
दे दो मुझे तुम युद्ध की भिक्षा
वरुण कहें, तुमसे युद्ध करे जो
हरि के सिवा कोई नहीं दिखता ।
उन्हीं के पास तुम जाओ अब
तुम्हारी कामना पूरी करें वो
तुम जैसे दुष्टों को मारने
अनेकों अनेकों रूप धरें वो ।
