श्रीमद्भागवत -२८७ः भगवान श्री कृष्ण के लीला विहार का वर्णन
श्रीमद्भागवत -२८७ः भगवान श्री कृष्ण के लीला विहार का वर्णन
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श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
अनोखी छटा द्वारका नगरी की
हरे भरे उपवन, वृक्ष फलों से लदे
जिधर नज़र जाए, उधर ही ।
उनपर बैठकर गुनगुना रहे भौरे
और पक्षी कलरव कर रहे
सब संपत्तियों से भरपूर वो नगरी
विभूषित स्त्रियाँ सुंदर वेष में ।
भगवान की ये नगरी द्वारका
वे निवास करते इसी में
सोलह हज़ार से अधिक पत्नियाँ उनकी
उतने ही रूप धारण करते वे ।
उनकी और ही खिंची रहतीं पत्नियाँ
स्मरण उन्हें ना किसी और बात का
उनके सर्वस्व एकमात्र कृष्ण थे
उनको ना जाने कहतीं वो क्या क्या ।
रानियाँ कहतीं, “ अरे कुररी !
अब तो बड़ी रात हो गयी
भगवान तो अब सो रहे हैं
और तुम्हें नींद ना आती ।
कहीं कमलनयन कृष्ण की
चितवन में बिंधा तो नहीं
हमारे ही हृदय की तरह
ये कोमल तेरा हृदय भी ।
अरी चकवी ! तूने रात के समय
अपने नेत्र क्यों बंद कर लिए
तेरे पतिदेव कहीं चले गए क्या
या तेरे भी हृदय में ।
हमारे ही समान भगवान की
दासी होने का भाव लग गया
अरे समुंदर ! निरंतर गरजते तुम
तुम्हें नींद नहीं भाती क्या ।
हमारे प्यारे श्यामसुंदर ने
छीने धैर्य आदि गुण तुम्हारे
इसी से क्या हमारे समान ही
ऐसी व्याधि के शिकार हो गए ।
इस व्याधि की कोई दवा नहीं
और हे चन्द्रदेव ! तुम्हें
राज्य क्षमा रोग हो गया जिससे
तुम इतने क्षीण हो गए ।
हमारी भाँति क्या श्यामसुंदर की
मीठी बातें भूल जाने से
तुम्हारी बोलती बंद हो गयी
और तुम हो मौन हो गए ।
मलयानिल ! हमने तेरा बिगाड़ा क्या
जो तू हमारे हृदय में
काम का संचार कर रहा
पहले से ही है घायल ये ।
श्रीमन मेघ ! तुम्हारे शरीर का
सौंदर्य प्रियतम के जैसा हमारे
अवश्य ही तुम यदुवंशशिरोमणि
भगवान के हो परम प्यारे ।
तभी तो हमारी ही भाँति
प्रेम पाश में बंधकर उनके
ध्यान कर रहे हमारी ही भाँति
आंसुओं की धारा बहा रहे ।
री कोयल ! सुरीला गला तेरा
हमारे प्राण प्यारे के समान ही
मधुर स्वर में बोलती है तू
तेरा क्या प्रिया करें, बता दे हमें तू ही ।
प्रिय पर्वत ! उदास तुम बड़े
पृथ्वी को धारण कर रखा तुमने
ना तुम हिलते डुलते हो
ना कुछ सुनते ना कुछ कहते ।
जान पड़ता किसी बड़ी बात की
चिंता में मगन हो रहे
हमारी तरह अपने ऊपर कृष्ण का
चरण धारण करना हो चाहते ।
नदियों ! यह ग्रीष्म ऋतु है
कुण्ड तुम्हारे हैं सूख रहे
अब तुम्हारे अंदर नहीं दिखता
सौंदर्य कमलों का खिले हुए ।
दुबली पतली हो गयी तुम
जान पड़ता कि हमारे जैसे
अपना हृदय खो दिया है
कृष्ण की चितवन ना पा के ।
अत्यंत दुबली पतली हो गयीं
हो वैसे ही तुम सभी
अपने प्रियतम समुंदर का जल
ना पाकर दीन हीन हो रहीं ।
हंस ! स्वागत है आपका
श्यामसुंदर की कोई बात सुनाओ
हम तो हैं ये समझती
कि तुम उनके ही दूत हो ।
श्यामसुंदर सकुशल तो हैं ना
उनकी मित्रता तो क्षणभंगुर है
उन्होंने कहा था हमसे कि
हम उनकी परम प्रियतमा हैं ।
क्या उन्हें ये बात याद है
जाओ, हम तुम्हारी विनय नहीं सुनतीं
जब वे हमारी परवाह नहीं करते तो
उनके पीछे फिर मरें क्यों हम भी ।
क्या वे लक्ष्मी जी को छोड़कर
यहाँ नहीं हैं आना चाहते
क्या लक्ष्मी जी उनमें एक हैं
जिन स्त्रियों का अत्यंत प्रेम उनसे ।
लक्ष्मी जी के पास ही वो रहना चाहते
पर यह बात है फिर कैसी
क्या हम स्त्रियों में से एक भी
नहीं है लक्ष्मी जी के जैसी “ ।
परीक्षित, श्री कृष्ण की पत्नियाँ
अत्यंत प्रेम रखतीं कृष्ण में
ऐसे ही प्रेम से भगवान से
परमपद प्राप्त किया उन्होंने ।
भगवान की सारी लीलाएँ
इतनी मधुर मनोहर हैं कि
स्त्रियों का मन खिंच जाता है
उनकी और, उन्हें सुनने मात्र से ।
फिर जो स्त्रियाँ अपने नेत्रों से
देखतीं थी श्री कृष्ण को
उनके सम्बंध में तो कहना ही क्या
बड़ी ही भाग्यवान थीं वो तो ।
जिन बड़ भागी स्त्रियों ने मान लिया
अपना पति ही श्री कृष्ण को
परम प्रेम से सहलाया
उन्होंने कृष्ण के चरणकमलों को ।
उन्हें नहलाया, सुलाया और
खिलाया और पिलाया उनको
तरह तरह से उनकी सेवा की
उनकी तपस्या का वर्णन कैसे हो ।
परीक्षित, भगवान श्री कृष्ण ही
एकमात्र आश्रय सत्पुरुषों के
धर्म का आचरण करके
लोगों को यह दिखलाया उन्होंने ।
कि घर ही एक स्थान है
धर्म, अर्थ और काम का
इसलिए वे व्यवहार कर रहे थे
आश्रय लेकर गृहस्थोचित धर्म का ।
भगवान के पराक्रमी पुत्रों में
अठारह तो महारथी थे
प्रद्युमण, दीप्तिमान, भानु, साम्ब
भानु और मधु आदि उनके नाम थे ।
इन पुत्रों में रुक्मिणी नन्दन
प्रद्युमण जी सर्वश्रेष्ठ थे
अपने पिता के समान दीखते वो
गुण भी उनसे सारे मिलते थे ।
रुक्मी की कन्या से विवाह हुआ उनका
उसी से अनिरुद्ध का जन्म हुआ
अनिरुद्ध बड़े बलशाली थे और
हज़ार हाथियों का बल उनमें था ।
अनिरुद्ध जी का विवाह हुआ
अपने नाना की पोती से
उनसे वज्र का जन्म हुआ
और यदुवंशियों में से ये ।
बस अकेले ही बचे थे
जब ब्राह्मणों के शाप से
पैदा हुए मूसल के द्वारा
नाश हुए यदुवंशी सारे ।
वज्र के पुत्र थे प्रतिवाहु
सुबाहु, प्रतिवाहु के पुत्र थे
सुबाहु के शान्तसेन हुए
और शत सेन, शांतसेन के ।
यदुवंश के जो बालक थे
उनको शिक्षा देने के लिए
मैंने सुना है कि तीन करोड़
अस्सी लाख आचार्य थे ।
सोचो यदुवंशी फिर कितने होंगे
और महाराज अग्रसेन के साथ में
दस लाख करोड़ के लगभग
सेना में सैनिक थे उनके ।
परीक्षित, देवासुर संग्राम के समय
बहुत से भयंकर असुर मारे गए
वे ही मनुष्य रूप में उत्पन्न हो
जनता को सताने लगे थे ।
उनका दमन करने के लिए ही
भगवान की ही आज्ञा से
देवताओं ने धरती पर आकर
अवतार लिया था यदुवंश में ।
एक सौ एक कुलों की संख्या उनके
वे सब कृष्ण को आदर्श मानते
द्वेष करने वाले या भक्त सभी
दोनों ही उनको प्राप्त हो गए ।
जितने भी धर्म प्रचलित
ऋषियों या उनके वंशजों में
सबके संस्थापक श्री कृष्ण हैं
काल स्वरूप चक्र लिए रहते हाथों में ।
अधर्म का अंत किया उन्होंने
धर्म मर्यादा की रक्षा के लिए
लीला शरीर ग्रहण किया उन्होंने
इन लीलाओं का श्रवण हमें करना चाहिए ।
श्रवण, कीर्तन, चिन्तन, भक्ति ये
हमें परमधाम में पहुँचा देती
काल की दाल नहीं गलती वहाँ
पहुँच ना पाता वहाँ काल भी ।