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Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत-२७७; श्री कृष्ण द्वारा सुदामा जी का स्वागत

श्रीमद्भागवत-२७७; श्री कृष्ण द्वारा सुदामा जी का स्वागत

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राजा परीक्षित ने पूछा ‘ भगवन

शक्ति अनन्त है श्री कृष्ण की

इसलिए माधुर्य में, ऐश्वर्य में

लीलाएँ भी अनन्त हैं उनकी।


वाणी जो भगवान का गाण है करती

वो ही वाणी है सच्ची

हाथ वो सच्चे , काम करते हैं

जो सेवा के लिए भगवान की।


मन वही सच्चा है जो

भगवान का स्मरण है करता

वही कान वास्तव में कान हैं

श्रवण करे जो प्रभु की कथाओं का।


वो ही सिर सिर है जो

नमस्कार करता है प्रभु को

सर्वत्र प्रभु का दर्शन करते हैं

नेत्र वास्तव में नेत्र वो।


शरीर के जो अंग भगवान के

चरणोदक का सेवन करते

उन्हीं का होना सफल है

अंग हैं वो ही वास्तव में ‘।


सूत जी कहें, शौनकादि ऋषियो

प्रश्न सुनकर राजा परीक्षित के

हृदय कृष्ण में तल्लीन हो गया

शुकदेव जी का, वो ये कथा कहें ।


परीक्षित, एक ब्राह्मण सुदामा नाम के

परम मित्र वो श्री कृष्ण के

बड़े ही ब्रह्मज्ञानि, शान्त चित

विषयों से विरक्त, जितेंद्रिय वे।


किसी प्रकार का संग्रह, परिग्रह

ना रखते थे, गृहस्थ होने पर भी वे

उसी में सन्तुष्ट रहते थे

प्रारब्ध अनुसार जो मिल जाता उन्हें।


वस्त्र फटे पुराने थे उनके

वैसे ही वस्त्र उनकी पत्नी के भी

वे भी अपने पति के समान ही

भूख से दुबली हो रहीं थीं।


दरिद्रता की प्रतिमूर्ति दुख़िनि

भूख के मारे एक दिन पतिव्रता वो

पतिदेव के पास गयी और

विनय कर फिर कहा था उनको।


‘ भगवन ! साक्षात लक्ष्मीपति कृष्ण

तुम्हारे सखा हैं, और वे

शरणागत वत्सल हैं और

परम भक्त वे ब्राह्मणों के।


वे एकमात्र आश्रय हैं

साधु, संतों और सत्पुरुषों के

आप उनके पास तो जाईए

एक बार मेरे कहने से।


जब वे जानेंगे, आप कुटुम्बी हैं

और अन्न के बिना दुखी हो रहे

हालात देखकर वो आपके

बहुत सा धन आपको देंगे।


वे आजकल द्वारका में हैं

और जो स्मरण करते उनका

उन प्रेमी भक्तों को वे

दान कर देते अपने आप का ‘।


इस प्रकार जब पत्नी ने कहा

ब्राह्मण देवता ने ये सोचा

‘ धन की तो कोई लालसा ना मुझे

पर कृष्ण का दर्शन तो होगा ‘।


यही विचार करके उन्होंने

चलने का निश्चय कर लिया

अपनी पत्नी से ये बोले

‘ घर में है क्या कुछ पड़ा हुआ ?।


जो मैं अपने मित्र को दे सकूँ

यदि कुछ है तो दे दो मुझे ‘

तब पत्नी ने पड़ोस से माँगकर

चार मुट्ठी चिवड़े दे दिए उन्हें।


एक कपड़े में बांध दिया था

भगवान को देने के लिए उनको

ब्राह्मण देव उनको लेकर फिर

चल दिए द्वारका की और को।


मार्ग में सोचते जा रहे

भगवान कृष्ण के दर्शन होंगे मुझे

द्वारका पहुँचे और पहुँच गए

कृष्ण की रानियों के महलों में।


उनमें से एक में प्रवेश किया उन्होंने

अत्यंत शोभायुक्त महल वो

रुक्मिणी संग विराजे हुए कृष्ण वहाँ

ब्राह्मण देवता को देखा तो।


सहसा ही वे उठ खड़े हुए

भुजा पाश में बांध लिया उनको

अत्यंत आनंदित हो गए

मिलकर अपने प्यारे सखा को।


नेत्रों में आंसू आए भगवान के

पलंगपर बैठाकर पूजा की उनकी

पाँव पखारे अपने हाथों से

चरणोदक सिर पर धारण की।


सुदामा फटे वस्त्र पहने हुए

शरीर अत्यंत दुर्बल हो रहा

स्वयं भगवान रुक्मिणी के साथ में

कर रहे थे उनकी सेवा।


अत्यंत विस्मित हो रहीं रानियाँ

ऐसे देखकर श्री कृष्ण को

कि मेले कुचैले अवधूत ब्राह्मण की

स्वयं पूजा क्यों कर रहे वो।


आपस में वो कहने लगीं

‘इस नंग धडंग निर्धन ने

ऐसा क्या पुण्य काम किया

कि प्रभु उनका सत्कार कर रहे ‘।


परीक्षित, भगवान श्री कृष्ण और

सुदामा ब्राह्मण हाथ पकड़े हुए

गुरुकुल में जो घटनाएँ हुई थीं

उनको वे थे स्मरण कर रहे।


श्री कृष्ण ने कहा, ‘ हे ब्राह्मण

निकलने के बाद गुरुकुल से

विवाह आपने किया कि नही

कौन कौन है आपके घर में।


जानता मैं कि चित आपका

आसक्त नही विषय भोगों में

धन आदि से कोई प्रीति नही

लोक शिक्षा के लिए कर्म करें।


ब्राह्मण शिरोमणि, क्या आपको

याद है समय सब वो

गुरुकुल में निवास करते थे

एक साथ जब हम दोनो।


मित्र, शरीर का इस संसार में

जन्मदाता पिता प्रथम गुरु है

उपनयन संस्कार करके

शिक्षा दे जो, गुरु दूसरा है ।


मेरे ही समान पूज्य वो

तदनंतर ज्ञानोपदेश करके जो

परमात्मा की प्राप्ति कराता जो गुरु

मेरा स्वरूप ही है वो तो।


वर्णाश्रमियों के ये तीन गुरु होते

स्वयं मैं ही गुरु के स्वरूप में

जितना संतुष्ट मैं गुरु की सेवा से

ना होता हूँ मैं और किसी से।


ब्राह्मण, तुमको तो याद ही होगा

जब एक बार हमें गुरु पत्नी ने

एक घने जंगल में भेजा था

ईंधन की लकड़ी लाने के लिए।


घोर जंगल में जब हम गए

भयंकर आँधी पानी आ गया

बिजली कड़कने लगी आकाश में

तबतक सूर्यास्त भी हो गया।


सभी और अंधेरा फैल गया

पानी ही पानी हो गया धरती पर

इधर उधर भटक रहे थे

एक दूजे का हाथ पकड़कर।


गुरुदेव सांदीपणि मुनि को

जब इस बात का पता चला तो

जंगल में ढूँढने निकल पड़े

सूर्यौदय होने पर हमको।


जंगल में जब वे थे पहुँचे

हम दोनों से कहने लगे वे

‘ पुत्रों, अत्यन्त कष्ट उठाया है

हम लोगों के लिए तुमने।


सबसे अधिक प्रिय होता है

अपना शरीर शरीरधारियों को

परन्तु इसकी परवाह ना करके, हमारी

सेवा में संलग्न रहे तुम दोनो।


गुरु के ऋण से मुक्त होने को

शिष्यों का बस है कर्तव्य ये

कि विशुद्ध भाव से वो सब कुछ

गुरुदेव को समर्पित कर दे।


तुम लोगों से अत्यन्त प्रसन्न मैं

सारे मनोरथ तुम्हारे पूरे हों

वेदाध्ययन किया हमसे जो तुमने

सर्वदा कंठस्थ रहे वो।


इस लोक और परलोक में

कहीं भी निष्फल ना हो

परीक्षित, ऐसी कई घटनाएँ

हुईं थी जब गुरुकुल में दोनो।


ब्रह्मणदेव ने कहा, श्री कृष्ण

सत्यसंकल्प, परमात्मा  आप तो

सौभाग्य आपके साथ रहने का

गुरुकुल में मुझे प्राप्त हुआ जो।


वेद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का

मूल श्रोत, शरीर है आपका

वहीं आप वेदाध्ययन के लिए

गुरुकुल में रहें, ये आपकी लीला।


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