श्रीमद्भागवत-२५३; सय्मंतक्मणि की कथा ,जाम्बवती और सत्यभामा के साथ श्री कृष्ण का विवाह
श्रीमद्भागवत-२५३; सय्मंतक्मणि की कथा ,जाम्बवती और सत्यभामा के साथ श्री कृष्ण का विवाह
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
श्री कृष्ण पर शत्राजीत ने
झूठा एक कलंक लगाया कि
सयमंतकमणि चुराई उन्होंने।
फिर उस अपराध का मर्दन करने को
उस मणि सहित अपनी कन्या को
भगवान कृष्ण को सौंप दिया था
सत्यभामा नाम की कन्या वो।
राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन
सत्राजित ने क्या अपराध किया
सयमंतकमणि कैसे मिली उसको
कन्या को कृष्ण को क्यों दे दिया।
श्री शुकदेव जी ने कहा, परीक्षित
सत्राजित भक्त थे सूर्य के
भक्ति से प्रसन्न होकर उसकी
सूर्य उसके मित्र बन गए।
सूर्य भगवान ने ही प्रसन्न हो
सयमंतकमणि दी थी उसको
मणि को धारण कर गले में वो
चमकने लगे जैसे स्वयं सूर्य हों।
जब वे द्वारका में आए तो
लोग उनको पहचान ना सके
अत्यंत तेजस्वी होने के कारण
उन्हें भगवान सूर्य ही समझे।
कृष्ण के पास जाकर सूचित किया
सूर्य आ रहे दर्शन करने
परीक्षित, उनकी बातें सुनकर तब
कृष्ण हसें और कहें उनसे।
सूर्यदेव नही ये सत्राजित है
चमक रहा मणि के कारण ये
सत्राजित तब घर चले गए
मंगल उत्सव मनाया वहाँ सब ने।
ब्राह्मणों द्वारा समयंतकमणि को
स्थापित किया देवमंदिर में
अठारह भार सोना दिया करती
परीक्षित, यह मणि एक दिन में।
जहां पूजित होकर रहती थी
वहाँ महामारी, ग्रहपीड़ा
मानसिक, शारीरिक व्यथा
कोई भी अशुभ नही होता।
एक बार भगवान कृष्ण ने
प्रसंगवश सत्राजित से कहा
राजा अग्रसेन को दे दो ये मणि
परन्तु सत्राजीत ना माना।
इतना अर्थलोलुप लोभी था वो कि
भगवान की आज्ञा का ये उल्लंघन होगा
ऐसा विचार ना करके उसने
इस बात को अस्वीकार कर दिया।
प्रसेन सत्राजित का भाई था
एक दिन मणि डाल गले में वो
शिकार खेलने चला गया था
अपने घोड़े पर सवार हो।
घोड़े समेत मारा था प्रसेन को
एक सिंह ने, जब गया वो वन में
मणि को छीन कर फिर
सिंह चला गया अपनी गुफा में।
गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि
जाम्बवान ने मार डाला उसे
मणि अपने साथ ले गया
बच्चों को दे दी खेलने के लिए।
लौट के जब प्रसेन ना आया
दुख हुआ था सत्राजित को
कहने लगा कि मणि के लिए ही
कृष्ण ने मार डाला भाई को।
बात सुनकर सत्राजित की
लोग कानाफूसी करें वहाँ
कलंक ये मेरे पर लगा है
जब ये श्री कृष्ण ने सुना।
उसे धो बहाने के उद्देश्य से
कुछ सभ्य पुरुषों को नगर के
साथ लेकर वन में गए
प्रसेन को ढूँढने के लिए।
वन में खोजते खोजते उसको
उस जगह पर पहुँच गए
जहां पर प्रसेन और घोड़े को
मार डाला था एक सिंह ने।
पैरों के चिन्हों को देखते सिंह के
उस गुफा में पहुँच गए वो
जहां पर एक रीछ ने
मार डाला था उस सिंह को।
बाक़ी सब को बाहर बैठाकर
गुफा में रीछ की कृष्ण चले गए
भयंकर गुफा थी ऋक्षराज की
घोर अंधकार था उसमें।
भगवान ने देखा सयमंतकमणि को
बच्चों ने खिलोना था बना दिया
अपरिचित मनुष्य को देखकर
बच्चों को भी थोड़ा भय लगा।
बच्चे चिल्लाने लगे वो
क्रोध में जाम्बवान वहाँ आए
भगवान की महिमा का पता ना चला
उस समय वो कुपित हो रहे।
साधारण मानव समझ कृष्ण को
युद्ध करने लगे वो उनसे
अस्त्र, शस्त्र, शिला और वृक्ष
एक दूसरे पर वो फेंकें ।
अंत में बाहुयुद्ध होने लगा
अठाइस दिन तक रात दिन लड़े
कृष्ण के घूँसे की चोट से
जाम्बवान हार गए अंत में।
शरीर पसीने से लथपथ हो गया
विस्मित होकर कहा उन्होंने
‘ प्रभो, अब मैं जान गया हूँ
विष्णु आ, रक्षक जगत के।
प्रभु, मुझे स्मरण है आपने
समुंदर की और तनिक क्रोध करके
देखा था जब तिरछी नज़र से
तो दे दिया था मार्ग उसने।
सेतु बांधकर फिर समुंदर पर
विध्वंस किया था लंका का
अवश्य ही आप मेरे राम हैं
वेश धरा है अब कृष्ण का।
पहचान लिया जब जाम्बवान ने
उनके शरीर पर श्री कृष्ण ने
अपने करकमलों को फेरा
प्रेम से फिर कहा उनसे।
ऋक्षराज, मैं मणि के लिए ही
आया हूँ तुम्हारी इस गुफा में
कलंक को मैं हूँ मिटाना चाहता
इस मणि के द्वारा ही अपने।
जाम्बवान ने बड़े आनंद से
श्री कृष्ण की पूजा करने को
अपनी कन्या जाम्बवती और
मणि को समर्पित किया उनको।
जिन लोगों को छोड़ा था
गुफा के बाहर भगवान कृष्ण ने
बारह दिनों तक प्रतीक्षा की
परन्तु जब देखा उन्होंने।
कि भगवान गुफा से नही निकले
तो अत्यन्त दुखी हुए वे
द्वारका लोटे तो द्वारका वासी जो
शोक हुआ सुनकर उनको ये।
सत्राजित को भला बुरा कहने लगे
और कृष्ण की प्राप्ति के लिए
दुर्गा देवी की शरण में गए
उनकी उपासना करने लगे।
इष्ट देवी प्रसन्न हुईं इससे
आशीर्वाद दिया सबको उन्होंने
उसी समय सबके बीच में
श्री कृष्ण प्रकट हो गए।
नववधू जाम्बवती के साथ में
सयमंतक मणि लेकर वो
परमानन्द में मगन हुए सब
जैसे कोई मरकर जिया हो।
राज्यसभा में बुलाया
सत्राजजित को श्री कृष्ण ने
सारा वृतान्त कह सुनाया
सयमंतक मणि प्राप्त हुई कैसे।
सत्राजित को सौंप दी मणि
अत्यन्त लज्जित हो रहा वो
मणि तो उसने ले ली थी परन्तु
मुँह लटका हुआ नीचे को।
पश्चाताप हो रहा था उसको
किसी प्रकार अपने घर पहुँचा
मन की आँखों के सामने
निरन्तर अपराध ये नाचता रहता।
भयभीत भी हो रहा था
और यही सोच रहा वो
अपने अपराध का भाजन कैसे करूँ
कृष्ण मुझसे कैसे प्रसन्न हों।
ऐसा कौन सा कार्य करूँ मैं
कि लोग मुझे कोसें नहीं
मूर्खता का काम कर बैठा
मैं तो धन के लोभ में ही।
अपनी कन्या सत्यभामा और मणि
दोनो को दे दूँ कृष्ण को
मेरे अपराध का भाजन हो इससे
उपाय नही और कोई तो।
विवेक बुद्धि से ऐसा निश्चय कर
दोनों को समर्पित किया कृष्ण को
सत्यभामा सुंदर तो थीं हीं
सदगुणों से भी सम्पन्न थीं वो।
विधिपूर्वक पनिग्रहण किया
श्री कृष्ण ने सत्यभामा का
‘ हम समयंतक मणि ना लेंगे ‘
भगवान ने सत्राजित को कहा।
सूर्य भगवान के भक्त आप हो
इसलिए मणि आपके पास ही रहे
उसका फल, उससे जो सोना निकले
बस उसे हमें दे दिया करें।
