श्रीमद्भागवत - २११; ब्रह्मा जी के द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीमद्भागवत - २११; ब्रह्मा जी के द्वारा भगवान् की स्तुति
ब्रह्मा जी ने कहा, हे प्रभो
आप एकमात्र स्तुति करने योग्य हैं
आपके चरणों में ही
नमस्कार करता हूँ मैं।
श्यामल शरीर मेघ समान आपका
उसपर झिलमिल करता पीताम्बर
मुख अनोखी छटा दे रहा
मोर पंख का मुकुट है सिरपर।
वक्षस्थल पर लटकी वनमाला
दही भात का कोर, हथेलियों पर
बगल में बेंत की सिंगी तथा
बांसुरी शोभा पा रही कमर पर।
आपके सुकुमार चरण और
सुमधुर वेष गोपाल बालक का
अभिलाषा पूर्ण करे जो भक्तों की
प्रभु श्री विग्रह ये आपका।
ये अप्राकृत शुद्ध सत्वमय है
माया फैलाकर अपनी जो मैंने
ऐश्वर्य आपका देखना चाहा. पर
मैं हूँ ही क्या आपके सामने |
प्रभु, क्षमा कीजिये मुझको
सब लोगों की आत्मा आप हैं
समस्त लोकों के साक्षी भी आप
इसलिए आप नारायण हैं।
आप ही एकमात्र सत्य
आप पूर्ण हैं, आप एक हैं
और सबके अंतकरण में
आप ही विराजमान हैं।
प्रभो, जगत के बड़े बड़े यज्ञ
सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर
अबतक आपको तृप्त न कर सके
परन्तु बछड़े और बालक बनकर।
व्रज की गायें और ग्वालिनों के
स्तनों का दूध पिया उमंग से
जीवन उनका ही सफल है
अत्यंत ही धन्य हैं वे।
आपके प्रेमी व्रजवासिओं का
जीवन आपका ही जीवन है
आप ही उनके जीवन हो
उनका सर्वस्व एकमात्र आप हैं।
उनके चरणों की धूलि मिलना
मिलना है धूलि आपके चरणों की
आदिकाल से ढूंढ रहीं इस
चरणों की धूलि को श्रुतियां भी।
आप मुझे स्वीकार करके अब
आज्ञा दें अपने लोक जाने की
शुकदेव जी कहें, ऐसा कहकर
सत्यलोक चले गए ब्रह्मा जी।
यथास्थान पर पहुंचा दिया था पहले ही
ब्रह्मा जी ने ग्वालों बछड़ों को
यमुना के पुलिन पर पहुंचे श्री कृष्ण
जहाँ पहले उनको छोड़ गए वो।
परीक्षित श्री कृष्ण के वियोग में
यद्यपि बीत गया एक वर्ष था
तथापि उन ग्वालबालों को वह
आधे क्षण के समान जान पड़ा।
कृष्ण को कहें, भाई तुम्हारे बिन
एक कोर भी नहीं खाया हमने
भगवान् ने उनके साथ भोजन किया
लौटा लाये उनको व्रज में।
उन बालकों ने व्रज में आकर कहा
बड़ा भारी अजगर मारा कृष्ण ने
हम लोगों की रक्षा की उससे
सुनकर ये सभी आश्चर्यचकित हो गए।
परीक्षित ने पूछा, ब्राह्मण !
कृष्ण व्रजवासिओं के लिए तो
उनके अपने पुत्र नहीं थे फिर भी
इतना प्रेम क्यों करते वे उनको।
इतना प्रेम तो व्रजवासिओं को
अपने बालकों से भी नहीं था
कृपाकर बतलाइये मुझको
इस सब का क्या कारण था।
श्री शुकदेव जी कहते हैं, राजन
संसार के सभी प्राणी हैं जो
सबसे बढ़कर प्रेम करते हैं
अपनी आत्मा को ही वो।
पुत्र, घर या किसी से प्रेम हो
इसलिए है होता वह तो
कि वे वस्तुएं प्रिय लगतीं हैं
मनुष्य की अपनी आत्मा को।
यही कारण है कि जैसा प्रेम
आत्मा के प्रति होता है
वैसा अपने कहलाने वाले
पुत्र, घर. गृ से नहीं होता है।
आत्मा मानते जो लोग देह को ही
वे भी शरीर से जितना प्रेम करें
उतना प्रेम शरीर से सम्बंधित
पुत्र, मित्र आदि से नहीं करते।
इससे यह सिद्ध होता है
कि सभी प्राणी अपनी आत्मा से
सबसे बढ़कर प्रेम करते हैं
जगत से प्रेम करें, उसी के लिए।
सब आत्माओं की आत्मा समझो
तुम इन श्री कृष्ण को ही
श्री कृष्ण के अतरिक्त और कोई
प्राकृत अप्राकृत वस्तु है ही नहीं।