श्रीमद्भागवत -१०७; अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोक पर्वत का वर्णन
श्रीमद्भागवत -१०७; अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोक पर्वत का वर्णन
श्री शुकदेव जी कहें, हे राजन
मेरु जैसे घिरा जम्बूद्वीप से
जम्बू द्वीप भी ऐसे ही घिरा हुआ
खारे जल के समुन्द्र से।
परिमाण विस्तार उस द्वीप समान ही
क्षार समुन्द्र भी है घिरा हुआ
पलक्षद्वीप नाम का द्वीप से
विस्तार में है इससे भी दूना।
जम्बूद्वीप में जो जामुन का पेड़ है
विस्तार वाला एक उतने ही
सुवर्णमय प्लक्ष वृक्ष एक
नाम द्वीप का है जिससे ही।
अग्निदेव हैं यहाँ विराजते
सात जिह्वाएं हैं जिनकी
प्रियव्रत पुत्र उधमजिह्व
हैं इस द्वीप के अधिपति।
उधमजिह्व ने विभक्त किया इसको
बनाये सात वर्ष थे इसके
हर एक वर्ष को सौंप दिया
फिर सात पुत्रों को अपने।
इनमें सात मर्यादापर्वत और
प्रसिद्ध सात महानदियां भी
वहां चार वर्ण होते हैं
उपासना करते हैं वो सूर्य की।
प्लक्षद्वीप घिरा हुआ है
इक्षुरस के समुन्द्र से
इसके आगे एक शाल्मली द्वीप है
घिरा समुन्द्र से मदिरा के।
शाल्मलीद्वीप में शाल्मली का वृक्ष है
प्लक्षद्वीप के प्लक्ष समान ही
कहते हैं यहाँ गरुड़ निवास करें
यज्ञवाहु थे इस द्वीप के अधिपति।
प्रियव्रत के वो पुत्र थे
उन्होंने इस द्वीप के सात विभाग किये
और उनके जो सात पुत्र थे
ये उन पुत्रों को सौंप दिए।
इसमें भी सात पर्वत और
सात ही नदियां प्रसिद्ध हैं
चन्द्रमा की उपासना करते हैं
इसमें भी जो चार वर्ण हैं।
मदिरा के समुन्द्र के आगे
घिरा हुआ घृत के समुन्द्र से
कुश द्वीप नाम का द्वीप एक
दूने परिमाण वाला वो इससे।
भगवान द्वारा रचा हुआ एक
कुशों का झाड़ है इसमें
समस्त दिशाओं को प्रकाशित करता
अपनी कोमल शिखाओं की काँति से।
अधिपति महाराज हिरण्यरेता थे
पुत्र वो भी थे प्रियव्रत के
सात विभाग कर बाँट दिया उन्होंने
सात पुत्रों में थे जो उनके।
यहाँ पर जो पुरुष रहते वो
अग्निस्वरूप भगावन हरि का
यज्ञादि कर्मकौशल के द्वारा
पूजन वो करते हैं उनका।
घृतसमुंद्र के आगे फिर
द्विगुण परिमाणवाला क्रोंचद्वीप है
दूध का एक बड़ा समुन्द्र
इस द्वीप के चारों और है।
क्रोंच नाम का एक बड़ा पर्वत वहां
क्षत विक्षित हुआ कार्तिकेय के प्रहार से
फिर से वो निर्भय हो गया
सींचा गया जब क्षीर समुन्द्र से।
प्रियव्रत के पुत्र धृतपृष्ठ थे
इस द्वीप के अधिपति
सात भाग किये द्वीप की पृथ्वी के
अपने सात पुत्रों में बाँट दी।
स्वयं शरण उन्होंने ले ली
हरि के पावन पादारविन्दों की
वहां के लोग उपासना करते
जल के देवता अपोदेवता की।
क्षीर समुन्द्र से आगे फिर
मट्ठे के समुन्द्र से घिरा
शाकद्वीप, जिसका विस्तार है
चार सौ बत्तीस लाख योजन का।
शाक नामक एक बड़ा वृक्ष वहां
मनोहर सुगंध है जिसकी
जिससे द्वीप है महका करता
मेघातिथि इसके अधिपति।
उनके भी सात पुत्र थे
उनमें बाँट प्रभु की शरण ली
यहाँ के लोग आराधना करते
वायु रूप श्री हरि की।
मट्ठे के समुन्द्र के आगे
चारों और पुष्कर द्वीप है
मीठे जल से घिरा हुआ ये
वहां पर एक बड़ा पुष्कर है।
ये जो बड़ा कमल है ये
लाखों स्वर्ण पंखडिओं वाला
और इस बड़े पुष्कर को
स्थान माना जाता ब्रह्मा का।
एक पर्वत मानसोत्तर नाम का
बीचो बीच है इस द्वीप के
इन्द्रादि लोकपालों की पूरियां
इसके ऊपर चारों दिशाओं में।
सूर्य के रथ का पहिया जो
मेरुपर्वत के चारों और घूमे
सर्वथा घूमता रहता इनपर
देवताओं के दिन रात क्रम से।
वीतिहोत्र इसके अधिपति थे
रमणक और धारवी उनके दो पुत्र
उनको दो वर्षों का अधिपति बनाकर
भगवत सेवा में हो गए तत्पर।
ऐसे कर्म करते हैं जिससे
प्राप्ति हो ब्रह्मलोकादि की
वहां के लोग आराधना करते
ब्रह्मारूप भगवान हरि की।
शुकदेव जी कहें, हे राजन
लोकालोक पर्वत है इससे आगे
उसके आगे स्वर्ण भूमि है
स्वच्छ है जो समान दर्पण के।
इसमें गिरी हुई कोई वस्तु
मिलती है कभी फिर नहीं
इसीलिए देवताओं के अतिरिक्त
यहाँ और कोई रहता नहीं प्राणी।
सूर्य से प्रकाशित और अप्रकाशित
भूभागों के बीच में पर्वत ये
लोकालोक पर्वत इसे कहते
इसीलिए ही नाम पड़ा ये।
चारों और त्रिलोकी के बाहर
सीमा के रूप में स्थापित है ये
इतना ऊँचा कि सूर्य किरणें भी
इसके दूसरी और न जा सकें।
पचास करोड़ योजन का है
यह समस्त भूलोक ही
विस्तार साढ़े बारह करोड़ योजन
इस लोकालोक पर्वत का ही।
संसार के गुरु ब्रह्मा जी ने
सम्पूर्ण लोकों की स्थिति के लिए
ऋषभ, पुष्करचूड़, वामन और अपराजित
नामक चार गजराज नियुक्त किये।
विश्वकसेन अदि पार्षदों सहित
सब और विराजें इस पर्वत पर
विशुद्ध सत्व धारण किये हुए
परम पुरुष श्री हरि वहां पर।
शंख, चक्रादि से सुशोभित
कल्प के अंत तक रहते हैं
लोकालोक के एक अंतर्वर्ती भूभाग है
दूसरी और अलोक प्रदेश है।
स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में
केंद्र है जो ब्रह्माण्ड का
वही सूर्य की स्थिति है
वैराजरूप में विराजें वो वहां।
इस मृतअण्ड में विराजने के कारण
मार्तण्ड नाम से जाने जाते हैं
हिरण्मय ब्रह्माण्ड से प्रकट हुए हैं
हिरण्यगर्भ भी इन्हे कहते हैं।
सूर्य के द्वारा ही विभाग हो
दिशा, आकाश, अंतरिक्ष, भूलोक का
स्वर्ग, मोक्षप्रदेश, नर्क, रसातल
तथा अन्य समस्त भागों का।
सूर्य ही अधिष्ठाता है
देवता, मनुष्य, लता, वृक्षों के
समस्त जीव समूहों के भी
और आत्मा और नेत्रेन्द्रिओं के।
