श्रद्धा सुमन
श्रद्धा सुमन
आपको इस दुनिया से
विदा लिए,
हो गया है एक लंबा अरसा।
क्या आप जानते हैं
मैं प्रतिदिन मन ही मन
आपको श्रद्धा सुमन चढ़ाती हूं।
आप जहां भी हैं
जिस लोक में भी हैं
वहां आप प्रसन्न रहें
हम पर आशीर्वाद बनाए रखें
यही आपसे विनती है।
आज हम चारों बहनें
जिस स्थिति में हैं
जिस पद पर तैनात हैं
आपकी अच्छी व आधुनिक सोच
के कारण संभव हो पाया।
मुझे याद है विभाजन के समय
भारत में स्थानांतरण के पश्चात
पॉकेट में, पैसे के नाम पर
कुछ भी न होने पर भी
जैसे तैसे हम सब की भरपेट रोटी का
इंतजाम करने का बीड़ा
आपने बहुत अच्छे ढ़ंग से निभाया।
विद्यार्थी जीवन की मुश्किलों में
हमारा घबरा जाना
पढ़ाई छोड़ देने की बात करना
आपका सदैव हमें प्रोत्साहित करना
न केवल पढ़ाई में
बल्कि पाठ्येतर गतिविधियों में भी,
हमेशा हमारा प्रकाश स्तंभ बने रहना
सब काबिले तारीफ है।
उस पिता को क्यों ना नमन करूं
जिसने समाज की फब्तियों को
दरकिनार कर
हम सभी बहनों को उच्च से
उच्चतर शिक्षा दिलाई और
समाज में हमारा एक रुतबा बनाया।
उस पिता के आगे शीश क्यों न झुकाऊं
जिसनें अपना पेट काट काट कर
हमें हर सुविधा दी
न खाने की कमी
न पहनने ओढ़ने की।
उस पिता को क्यों न सम्मान दूं
जिसने हमें इतनी आज़ादी से पाला
न कोई बंधन
न कोई रोक-टोक
इतना ऊर्जावान व
शक्तिशाली बनाया कि
हर परिस्थिति का
सामना करने के लिए तैयार रहें हम
हर पल।
वैसे तो देखा जाए
हर पिता अपने बच्चों के लिए
क्या कुछ नहीं करता
पहला कदम उठाने से लेकर
जीवन की कठिन डगर तक
जब तक बच्चे, पूर्णतया
अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते
एक खंबा बन सहारा देता है।
उसके बाद भी
जब तक पिता में है दम।
क्या क्या गिनाऊं,
आपने तो उससे भी बढ़कर किया।
शब्द नहीं है मेरे पास
धन्यवाद के लिए
हैं तो केवल
श्रद्धा सुमन।
स्वीकार कीजिए।