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sandeeep kajale

Abstract

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sandeeep kajale

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शिकारा

शिकारा

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ऐ बहारें, हसीं सहारें

कहाँ हो तुम ? कैसे हो तुम ?


मेरे ख्वाबों में मेरी ख्वाहिशों में

मेरी रूह में मेरी धड़कन में

मेरी सासों में


बहता है एक खूबसूरत नजारा

लेकिन ढूंढता है खुद का किनारा


बड़ा अजीब है इस झिल का पानी

फूलों का चमन.कहे एक कहानी


पहाड़ों से गुजरती ये एक लहर

लफ्जों की कशिश में, निकले सहर


जन्नत का नूर लेकर बहती

किस्मतोंकी दास्ताँ कहती


दो दिलों को जोड़ती ये मजधारें

बैठे, एक दूजे के इश्क में खुद को हारे


रात के गहरे अंधेरेमें

झुलजते कोहरे में


सर पे बांध के तमन्नाओं का कफ़न

कही इनका एहसास इसी में नो हो दफन


आग में लगा कश्मीर दहलाने

मोहब्बत का दिया रखा सिरहाने


ये सिर्फ कश्ती नहीं प्यार की

ज़िंदगी को रूबरू होती, इजहार की


इनके वजूद से पिघलने लगे बरफ

सुनहरी किरणों का मेला, लगा हर तरफ


इंतहा के अग्नि का है ये निखारा

झेलम में बहता, अरमानों का शिकारा।


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