उलझनें
उलझनें
दिल को छलनी करते
ये अजीब से सवाल
जवाबों में ही खोये
कैसा हुआ हमारा हाल
ज़िंदगी बानी है
खत्म ना होने वाली पहेली
राहों में, में खड़ी
साथी ना, कोई सहेली
कैसा ये कोहरा मचा
फँस गए बीच भंवर
अब इससे बहार आना
मुश्किल
कैसे खुद को लूँ संवार
जाने अनजाने में, मुझसे
हो गयी कुछ ग़लतियाँ
इश्क में हासिल हुई
दर्द की पंक्तियाँ
दर-दर भटकी, खायी
बहुत मैंने ठोकर
किसी के ना हो सके
ज़िंदगी में, उसके होकर
वक्त भी लेता है
पल भर में करवटें
सपनों की चादर में
ढूंढते रहे, वो सिलवटें
बस यही खयाल है
की कब होगी सुलझनें
दूर हो गए हम खुद से
कैसे है ये उलझनें