शायद फिर कभी....!
शायद फिर कभी....!
खुशियों की कहां
कोई बरसात होती है,
बस क्षण भर आती है
लबों पर फिर दर्द छोड़ जाती है,
दूर दूर तक बस
सन्नाटा पसरा होता है,
अनजाना दर्द भी
कहीं आसपास छिपा होता है,
हर तरफ घोर अंधेरा
ना कोई आस है,
घुटन की बस ये शुरुआत है,
आंखों से आंसू सरक कर
गालों पर ही सूख रहे हैं,
जाने क्या अनकहीं कहानी
खुद ही कह रहे हैं
कोई नहीं मेरा...!
जो सुने इस दिल की पुकार को,
कोई नहीं
जो सुन सके बेबसी की झंकार को,
कोई हो
जो जोड़े टूटे ख्वाबों को,
कांपते लफ्जों को,
डूबती सांझ को,
खामोश उदास भरी रातों को,
अब बस आस भरी निगाहों से
तकता रहता हूं,
कभी जी लेता हूं
कभी खुद ही मरता हूं,
अब मुस्करा रहा हूं
दूर उम्मीदों की किरण से टकरा रहा हूं,
शायद ये दर्द,
ये घुटन,
ये बेबसी,
ये बेगानापन कभी खत्म हो,
शायद मैं कभी..
खुद इससे मुक्त हो पाऊं
शायद फिर कभी
मुस्कराने की वजह खुद से ही मैं पाऊं,
शायद......!
