साहित्य बिक रहा
साहित्य बिक रहा
सोना चाँदी हीरे मोती,
तो तुम पहले बेच चुके
बचा हुआ था साहित्य,
जिसको अब तुम बेच रहे।
सब कुछ खत्म हो जायेगा,
बस थोड़ा सा इंतजार करो।
वो दिन भी अब दूर नहीं,
जब तुम स्वंय को ही खोजोगे।।
क्योंकि,
अब तो साहित्य बिक रहा,
गली मोहल्ले और चौराहों पर
कोई दूजा नहीं बेच रहा,
बेच रहे है साहित्य के ठेकेदार ही।
अब तुम ही बतलाओ,
कैसे सुरक्षित रह पायेगा?
साहित्य इन लोगों के हाथों में।।
स्वार्थ में सब लील हैं,
चिंता नहीं हैं साहित्य की
बस पैसे की दरकार है,
तो साहित्य को बेचो तुम।
क्योंकि साहित्य से इनको,
कुछ लेना देना नहीं
बस चाहत है पैसे और नाम की।।
किस हालत में पहुंचा दिया,
हमने हिंदी साहित्य को
कोई और नहीं इसका दोषी,
स्वंय बनाये हालत ये
क्योंकि हम भक्षक बन गए,
अपने ही साहित्य के।
और कितना गिराओगे,
तुम साहित्य के नाम को।।