रूठो ना...
रूठो ना...
यूँ रूठ जाते हो ना तुम
कुछ अजीब सा लगता है
क्या कहूँ कैसा लगता है
क्या तुम समझ सकोगे तो सुनो
ऐसे लगता है
जैसे किसी बच्चे से उसकी कुछ
मनचाही चीज गुम हो गयी हो
ऐसा लगता है
जैसे दिन भर के थकान के बाद
जब लौटकर घर आओ और घर
का दरवाज़ा खुल ही ना पाए
ऐसा लगता है
जैसे रेगिस्तान में रेत पानी की तरह
चमकती तो है पर पास जाने पर
पानी की एक बूँद ना मिले
ऐसा लगता है
जैसे निशिगंधा रात में खिल तो गयी है
पर उसकी खुशबू कहीं ग़ा
यब हो
ऐसा लगता है
जैसे बड़ी धूप में अचानक बारिश हो
और किसी ग़रीब के सिर पर छत
ही ना हो
ऐसे लगता है
जैसे कोई कवि कविता रच रहा हो
और उसकी कल्पना में कोई स्त्री
का अस्तीत्व ही ना हो
सुनो ना बहुत सी उपमाएँ तो
मैंने दे दी
बस यहीं समझकर तुम
रूठा ना करो ना
तुम्हारी ऐसी आदत लग चुकी है की
अब साँस भी तेरे दायरे से निकल
नहीं पाती है
एक दर्द सा होता है तुम बिन
हाँ तुम बिन मुझ में अधूरापन है
हाँ तुम बिन