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Chandresh Kumar Chhatlani

Classics

3  

Chandresh Kumar Chhatlani

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ऋतुराज

ऋतुराज

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राज ऋतुओं पे कहाँ कर पाता

है अब बसंत।

बहुरंगी फूलों से सजे फोन,

कूक रहे अब हर ऋतु में।


खेत धान के थे लहलहाते

किसान भी धान-धन अब कहाँ पाते ?

टेसू-पलाश की बयार भी

डिओड्रेंट से प्यारी कहाँ - यहाँ ?


मन में था भय बसा,

राज ऋतुओं पे कर बसंत

कह नहीं पाया

क्योंकि ऋतु स्त्रीलिंग और बसंत...

...हूँ !


ठण्ड में जमे हुए हमारे विचार

स्त्री-पुरुष से यदि ऊपर उठे तो

सम्प्रदायों-जातियों तक ही पहुँच पाते।

था बसंत समान,

शिव-शक्ति की तरह।


टुकड़े शिवलिंग के जोड़ने को

मक्खन की तरह।

चिड़ियों के नीड़ को आलिंगन में ले

ढलता था रवि के साथ वो।


किसी रज-महल की तरह नहीं

उषा के राजा की तरह।

लेकिन, बेसुध नहीं !

उषा को रानी बना।


माँ काली के चरणों में

क्यों था न बसंत सबके लिए समान?


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