ऋतुराज
ऋतुराज
राज ऋतुओं पे कहाँ कर पाता
है अब बसंत।
बहुरंगी फूलों से सजे फोन,
कूक रहे अब हर ऋतु में।
खेत धान के थे लहलहाते
किसान भी धान-धन अब कहाँ पाते ?
टेसू-पलाश की बयार भी
डिओड्रेंट से प्यारी कहाँ - यहाँ ?
मन में था भय बसा,
राज ऋतुओं पे कर बसंत
कह नहीं पाया
क्योंकि ऋतु स्त्रीलिंग और बसंत...
...हूँ !
ठण्ड में जमे हुए हमारे विचार
स्त्री-पुरुष से यदि ऊपर उठे तो
सम्प्रदायों-जातियों तक ही पहुँच पाते।
था बसंत समान,
शिव-शक्ति की तरह।
टुकड़े शिवलिंग के जोड़ने को
मक्खन की तरह।
चिड़ियों के नीड़ को आलिंगन में ले
ढलता था रवि के साथ वो।
किसी रज-महल की तरह नहीं
उषा के राजा की तरह।
लेकिन, बेसुध नहीं !
उषा को रानी बना।
माँ काली के चरणों में
क्यों था न बसंत सबके लिए समान?
