रोटी
रोटी
भूख लगाती है कभी तो याद इसकी आती है
ना मि ले तो पेट में एक आग सी लग जाती है
राजा हो या रंक देखो इसके सब ग़ुलाम है
तीनो वक़्त खाने के पहले इसको करते सलाम है
चाहे सुखी या हो रूखी पेट को भर जाती है
अपने खातिर लोगों को ये राह से भटकाती है
पास जिसके ये रहे वो राज सब पर करता है
ये ना हो पेट में तो जुर्म भी करवाता है
कितना भी हो प्रेम सबमे इसके आगे फीका है
है चलाता ये सभी को सबपर वश इसका है
पाती पर पड़ा नहीं तो जंग भी करवाता है
चाहे कितना बड़ा हवन हो भंग ये करवाता है
दे सका ना बाप तो वो बाप रहता ही नहीं
स्वामी रहता है नहीं और नाथ रहता ही नहीं
इसके पीछे हाथ जोड़े सब खड़े हो जाते है
लम्बी कितनी भी रहे क़तार में लग जाते है
क्या भला और क्या बुरा इसके आगे कुछ नहीं
लूट लेना या लुटाना इसके खातिर सब सही
कौन आगे क्या बनेगा तय करता है यही
भूख जो मिटा दे सबकी वो “रोटी” है यही।