रोज़ जब पीता हूँ
रोज़ जब पीता हूँ
रोज़ जब पीता हूँ,
पी के रोता हूँ,
रोते हुए कहता हूँ,
साली ये दारू ही रुलाती है।
सब ठीक था,
जब नहीं पीता था,
दर्द अंदर ही रहता था,
अंदर ही अंदर घुटता था,
साली ये दारू ही रुलाती है।
पहले आँसू छुपकर आते थे,
अब जाम में डूब के आते हैं,
दर्द जो छुपा रहता था,
अब नशा बन के चढ़ जाता है,
साली ये दारू ही रुलाती है।
