रहते हैं
रहते हैं
कंक्रीट के इस जंगल में सिर्फ मकाँ रहते हैं,
यहाँ सिर्फ़ बुत बसते हैं, लोग कहाँ रहते हैं?
लोग भूल जाते हैं अपने ही कहे लफ़्ज़ों को,
न लफ्ज़ मरते हैं और गूँजते वो बयाँ रहते हैं!
हम तो घूमते हैं इस जहाँ में ग़मग़ीन हो कर,
लोगों को शिकायत है कि हम बदगुमाँ रहते हैं!
तुम तो कहते हो कि यादों में दिखते हैं वो तुम्हें,
गुमें नहीं है साये बस वो होकर धुआँ रहते हैं!
लोग मुझ दीवाने से पूछे कि कहाँ रहते हो तुम,
हमने भी कह दिया कि बस यहाँ-वहाँ रहते हैं!
