"रहमत"
"रहमत"
ख़ुदा तेरी रहमत का दरिया मेरा हुज़्न मिटा रहा,
तेरे इश्क़ का दीवाना-पन, इख़्तिलाज बढ़ा रहा।
दीवाना मुंतजिर मैं तेरा, छवि तेरी निहार रहा,
नूर-ए-नजर का सुरमा तुझे मुतलक़ बना रहा।
फ़लक को निहारती आज, ये भीगी आंखें मेरी,
टूट कर बिखर आज मैं, मुझे तू ही संभाल रहा।
ख़ुदा सब कुछ मुकम्मल हुआ,इबादत से तेरी,
सफ़र-ए-ज़िंदगी में, हर क़दम मुकाम पा रहा।
इश्क़ में ठोकर मिली, तो तन्हाइयों ने जकड़ा,
मोहब्बत को पीछे छोड़,मैं मंजिल को जा रहा।