रेत
रेत


रेत
हे मानुष
मुझे रौंद कर
तुम कहाँ जाओगे
अपने पैरों के निशां
मेरे सीने पर ही पाओगे
लौट इक दिन यहीं आना
मेरे हृदय में आ स्वयं को समाना
धमंड न कर, रेत के निशां सा मिट जाना
ढूँढना चाहे तो भी न ढूँढ पाओगे
अपनी जगह औरों को पाओगे
यह कुदरत का नियम है
मिटना हर एक को है
मुट्ठी से फिसले
रेत -जीवन
कुछ कर
जाओ।