अपना उजाला
अपना उजाला
बहुत खल रहा है ज़माने को,
स्त्री का यूं कलम चलाना,
अपने लिए लिखे तो,
उसे साहित्य का इतिहास
समझाने बैठ जाते हैं लोग!!
खुद को बोर्ड समझकर,
कवयित्री के सर्टिफिकेट तक की चर्चा कर जाते है,
उन्हें कौन समझाए,
इस कलम की स्याही बिकाऊ नहीं,
ये सृजन रसोईघर में काम करते हुए भी होता है
और तुम्हारी तरह फुरसत में चाय पीते हुए भी;
बस फर्क इतना है
वो चाय हमने खुद ही बनाई होती है।
तो विचलित ना हो
तुम्हारे दिखावटी साथ की जरूरत नहीं हमें,
हमारा उजाला हम अपने संग लिए है,
किसी कंधे रूपी दीये की ज़रूरत नहीं हमें।