रामायण ६७;अशवमेघ यज्ञ
रामायण ६७;अशवमेघ यज्ञ
श्री रघुवीर के मन में आया
यज्ञ किये मैंने बहुत से
अशवमेघ यज्ञ अब करूँ मैं
गुरु के पास थे तब वो पहुंचे।
गुरु से यज्ञ की आज्ञा ली थी
गुरु बोले मुनियों को बुलाओ
नगरवासिओं को कहो सब
जनक जी को भी तुम बतलाओ।
जाम्ब्बाण, विभीषण, सुग्रीव को
निमंत्रण क़ुबेर, इंद्र को दो अब
चंद्र, सूर्य, महादेव और विष्णु
पहुँच गए वहां सब के सब।
विश्वामित्र भी आये वहां पर
पराशर, भृगु, अंगिरा आये
नारद और अगस्त मुनि पहुंचे
रामचंद्र के दर्शन पाए।
जनक जी को चिठ्ठी मिली तो
हृदय में समाता प्रेम नहीं है
गुरु शतानन्द को लेकर साथ में
अयोध्या में वो पहुँच गए हैं।
राम यज्ञ मंडप में आये
गुरु ने वचन कहे नीति के
सीता का होना है आवश्यक
यज्ञ न हो पाए बिना स्त्री के।
राम रहे चुप, फिर कहें ये
आप ही अब कुछ करिये ऐसा
रह जाये मेरी प्रतिज्ञा भी
और मेरा यश पहले जैसा।
गुरु कहें एक बनाओ मूर्ती
सीता समान सुंदर सुजान हो
रूपवती भी दिखे वो वैसी
हर तरह सीता समान हो।
मूर्ति देख सबको आश्चर्य हुआ
राम थे तब बैठे मंडप में
गुरु कहें एक सुलक्षण घोडा
लाओ, ऐसा लिखा वेदों में।
लक्ष्मण ले आये घुड़साल से
सफ़ेद घोडा आभूषण पहना कर
पत्र लिख घोड़े पर बांधा
पूजन किया उसका तिलक लगा कर।
भृगु मुनि पास आए राम के
लवणासुर की कथा सुनाएं
दुःख दे वो, मारे मुनियों को
राम अपना तरकश मंगवाएँ।
एक बाण दिया शत्रुघ्न को
वो सेना के साथ में आये
कहा इससे मारो लवणासुर को
अमोघ है ये कभी व्यर्थ न जाये।
विभीषण को तब बुलाया राम ने
पूछा, लवणासुर ये कौन है
मधु दानव की पत्नी कुम्भनिशा
उन दोनों का ये पुत्र है।
विभीषण कहें सौतेली बहन मेरी
पुत्र लवणासुर था पाया
शंकर जी की सेवा की उसने
देवताओं को उसने हराया।
