राख
राख
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उसको बर्बाद करने की खातिर ,
हम अपना घर जला बैठे ,
नफरत ~ए ~आग बुझाने की खातिर ,
कितनी राख उड़ा बैठे ?
यूँ तो कई सालों से संभाला था ,
उसके दिल ~ए ~ज़जबात का नजराना ,
पर दूरियाँ और बढ़ती गईं .....
और हम अपने हाथ जला बैठे |
सोचा कई बार लौटा देंगे उसे ,
जो था ही ना हमारा ....
पर आज भस्म कर सभी कुछ ,
अपने साथ छुपा बैठे |
खुदाया माफ करना इस गुनाह को ,
जो नफरत में ऐसे तबदील हुआ ,
हर जलती हुई चिंगारी को हम ,
गले का हार बना बैठे |
उसने पुण्य कमाया जी भर ,
हम एक पल में पाप के भागीदार बने ,
राख - राख हुई चिंगारी सब ,
हम नम आँखे सुजा बैठे |
मकसद कुछ भी ना था ,
सच कहूँ जो गर मेरे यार ,
बस साथ दफ़्न हो ये राज़ ,
खुद को गुनाहगार बना बैठे ||