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Nirupama Naik

Abstract

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Nirupama Naik

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राहगीर

राहगीर

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चलते-चलते आ पहुंची

न जाने किस मोड़ पर

ख़ुद के धुन में मग्न सी

बाकी सब कुछ छोड़ कर।


मंज़िल का ठिकाना नहीं

बस चलती ही जा रही

जाने कहाँ ले चलें हैं ये कदम

मकसद भी नही ढूढ़ पा रही।


अनजाने चेहरे भी अब

अपने से लगने लगे

इच्छाएं बढ़ती ही जा रही

आशायें जगने लगें।


हर कदम मेरे मुझे

उत्सुक करने में लगी हैं

आज दौड़ने से ज़्यादा

चलने की हसरत जगी है।


सारी दुनिया जैसे

घूम लूं यूँ ही चलते-चलते

देख लूँ हर रंग जीवन का

ज़िन्दगी का सूरज ढलते-ढलते।


इक ऐसे राह की राहगीर हूँ मैं

जहां मंज़िल न आता नज़र

बस जारी रखना है गति की अपने और

पर कर जाना है ये 'अनजान सा सफर'।


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