प्यास
प्यास
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धरती की देख तड़प, वर्षा आतुर हो उठी
बरसों रे मेघा, बादलों को पुकार उठी ।
समझ रहा था वेदना, व्याकुलता धरा की,
पर था लाचार वो।
देख रहा धरा को, मिलना चाह रहा था ।
क्षितिज पर, बारिश के सहारे ।
कंक्रीट के मकाँ, वन उजाड़,बना डाले ।
कैसे बुझाऊँ प्यास प्रिय की ?
कैसे इसे तृप्त करूँ ?
सोच रहा था बादल, नभ में खड़े खड़े ।
कहाँ ठहरूँगा बरस के ?
भूमि के आँगन में, किस गोद समाऊँगा मैं
धरा के आँचल में।
कितना भी बरसूँ, इसके अंग न समाऊँगा।
जीर्ण शीर्ण हो चली, स्नेह कैसे लुटाऊँगा।
हरित वसन सब नष्ट हुये, हो चली बंजर ये पृथा।
करूँ जतन कितना ही, न बना सकूँ इसे पहले सा ।
चिंतन में मग्न, सोच गहन हुआ।
लूँ आगोश पहले अपने, जीवन लूँ पहले इसका बचा ।
नज़र गयी जब धरा पर, अंतिम साँसें भर रही थी ।
चातक सी विरहिणी बन, प्रिय ओर प्यासी निहार रही थी ।