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Jhimli Parui

Romance

4  

Jhimli Parui

Romance

प्यार की कोई उम्र नहीं !

प्यार की कोई उम्र नहीं !

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"बंटी ! बंटी !"

एक आवाज़ गूँज रही थी, घर में 

Sunday का दिन था, मैं था पूरी नींद में 

सुबह के ९ बज रहे थे, पुकार गूँज रही थी पूरे घर में 

मैंने करवट बदली, और तकिया रख लिया कान में, 


फिर एक धक्का लगा, और आँखें खुल गयी,

"बंटी उठ, चलना है, मत्था टेकने "

"जी दादू ! ५ मिनट बस "

"Chocolate लाये हो ?" दादू के आवाज़ में थी मिठास 

अपने आप आ गई मेरी मुस्कान, उनकी ख़ुशी का था मुझे एहसास,

मुस्कुराते हुए मैंने बोला, "आपकी chocolate और Sunday कैसे भूल सकता हूँ "

आप चलिए, मैं तैयार हो कर आता हूँ। 


मुँह धोते हुए, mirror में मुझे दिखाई दी,

कुछ दो साल पहले की एक घटना याद आ गयी -

दादी के जाने बाद, दादू टूट से गये थे ,

अक्सर बीमार रहने लगे थे, जीने का मक़सद खो दिए थे,

मुझसे उनका अकेलापन देखा न जाता,

उनको भी खो देने का डर अधिक सताता।


फिर मैं उन्हें गुरूद्वारे ले जाने लगा, हर Sunday,

गुरबानी सुनते, सेवा करते और लंगर खाते,

दादू के साथ वक्त बिताते, और थोड़ा ध्यान भटकाते,

इसी बहाने, हम भी थोड़ा, सोणी कुड़ियों को निहार लेते।


एक दिन, हमारी मुलाकात एक देवी जी से हुई,

उम्र में वो दादू जी के आस पास ही थी,

उस दिन, चरनो की सेवा में लीन था मैं,

अपने t-shirt से पोंछ-पोंछ कर

चप्पल-जूते पहना रहा था मैं,

रोज़ की तरह दादू मेरे बाजू के chair पर बैठे थे,

उनकी आवाज में थी अलग सी मिठास,

मनमोहक सादगी और अदब का एहसास,

आज भी गूंजते हैं, उनसे पहली मुलाकात के शब्द,

"वाहे गुरु, बेटा,

वो सफ़ेद वाली जूती", "बहुत आशिर्वाद"

"आप तीरथ वीर जी है?" उनने दादू की ओर देखा

"लज्जो रानी..", दादू की आवाज में थी एक उमंग, वो पल था एकदम अनोखा।


उस क्षण, शायद मैं दादू का मन पढ़ पा रहा था,

Chair से उठ कर, गले लगाने को हो रहा था,

ऐसा लग रहा था कि वक्त, उनके लिए पीछे भाग रहा था,

दोनों की आंखों में आंसू थे, और मन व्याकुल था,

उस एक पल में, मानों, दोनों ने अपने यौवन के दर्शन कर लिए हो,

दादू उठ कर उनके पास गए, " लज्जो, तुम कैसी हो?"

उनने उनका हाथ थामा, "अभी भी तुम वैसी ही लगती हो"

वो शरमाई, मुस्कुराते हुए बोली, "तीरथ जी, आप बिल्कुल भी नहीं बदले हो"


दोनों को देख कर, मैं मन ही मन खुश हो रहा था,

शायद पहले कभी दादू के मुंह से ये नाम सुना था,

दादू के college की साथी थी,

उनके time पे मोहब्बत अक्सर मन में हुआ करता था,

पर मोहब्बत तो मोहब्बत हैं,

उस ज़माने का हो या इस ज़माने का,

मन तब भी व्याकुल हुआ करता था, 

वादियां तब भी नगमे सुनती थीं,

बिछड़ने का ग़म, तब भी रुलाता था,

अपने प्यार को पाने की इच्छा, तब भी होती थी।


पर प्रेम एक पवित्र बंधन था,

एक मर्यादा, एक त्याग,

एक तपस्या, एक प्रतिज्ञा,

एक पूजा, एक दान, 

एक प्रतिक्षा, एक परीक्षा


उस दिन से दादू को जैसे, जीने की उमंग मिल गई थी,

और मुझे प्यार का मायने समझ आ गया था,

प्यार की कोई उम्र नहीं होती,

प्यार तो बस प्यार होता है।


"बंटी, कितना तैयार हो रहा है, अब चलेगा भी??"

बंटी भागते हुए गाड़ी निकालने लगा, "वाहे गुरू! दादू जी, चलिए..."।


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